आलेख – डाॅ. रामकुमार अहिरवार (विभागाध्यक्ष, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व अध्ययन शाला, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन म.प्र.)
मध्यप्रदेश का उज्जैन जिला अपनी धार्मिक परम्पराओं के लिए विश्वविख्यात है। भारत की सप्त मोक्ष्य दायिनी पुरियों में शिप्रातटीय उज्जयिनी का महात्वपूर्ण स्थान है। बारह ज्योतिर्लिंगों में छटवें ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर यहाँ प्रतिष्ठित है। धार्मिक परम्परा अनुसार तीन शिवलिंगों का विशेष महत्व बतलाया गया है। जिसमें आकाश में तारक-लिंग, पाताल में हाटकेश्वर लिंग तथा भू-लोक में महाकालेश्वर लिंग है, यहाँ महाकालेश्वर शिवलिंग के रूप में विराजमान हं।
उज्जयिनी का गौरव महाकाल से है और महाकाल का गौरव है उज्जयिनी। प्राचीन मान्यता के अनुसार उज्जैन के मध्य कर्क रेखा गुजरती है। जहाँ ज्योतिर्लिंग प्रकाश और ज्ञान का प्रतीक है, वहीं ज्योतिष काल गणना का प्रतीक भी है। ज्योतिषगणना के केन्द्र महाकाल है। कालचक्र के प्रर्वतक महाकाल प्रतापशाली हैं, वायुपुराण में उल्लेख है कि नाभिदेश में महाकाल विराजमान है। यह नाभि देश उज्जयिनी ही है और यहाँ विराजमान भगवान् महाकाल ही भूलोक के प्रधान पूज्य देव हैं। पुराणों में उल्लेख हैं कि सृष्टि का प्रारम्भ महाकाल से ही हुआ है। इस काल चक्र की प्र्रवर्Ÿाना के कारण ही भगवान् शिव महाकाल के रूप में सर्वमान्य हुए।यही कारण है कि उज्जयिनी में महाकाल ज्योतिर्लिंग की प्रतिस्थापना हुई।
उज्जयिनी में महाकाल शिवलिंग की प्रतिस्थापना की प्राचीनता का अनुमान लगाना कठिन है, फिर भी पुरातात्विक एवं पौराणिक साक्ष्यों के आधार पर छटवीं शताब्दी ईसा पूर्व में प्रतिष्ठित देवालय होने का प्रमाण मिलता है। पुरातात्विक दृष्टिकोण से उज्जयिनी में भगवान शिव के तीन रूपों का निर्माण मिलता है- 1. लिंगाकार 2. मानवाकार 3.अर्द्धनारीश्वर । जिसमें लिंगाकार प्रतिमा सबसे प्राचीन महाकाल के रूप में पूजित हुई। ये लिंगाकार रूप के दो रूप है स्वयंभू शिव लिंग और मानुषी लिंग । भगवान महाकाल मूलतः स्वयंभू शिवलिंग के रूप में पूजित है। दूसरे जूना महाकाल एवं परिसर के शिवलिंग मानुषी शिवलिंग के रूप में गुप्तोŸार काल से पूजित दिखाई पड़ते है। जिनका निर्माण शिल्पग्रन्थों के आधार पर ही हुआ है। ये त्रैराशिक शिवलिंग है।
मूर्तिकला की दृष्टि से महाकाल की मानवाकार आकृति की प्राचीनता तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से दिखाई देती। उज्जयिनी से प्राप्त आहत मुद्राओं पर दंडधारी जो पुरूष-देवता उत्कीर्ण है, उसे विद्वानों ने महाकाल की संज्ञा दी है। क्योंकि उसके सिर पर समुन्नत जटामुकुट स्पष्ट दिखाई देता है जो शिव का प्रतीक है। इसी प्रकार उज्जयिनी के कुछ सिक्कों पर तीन मुख वाले चिन्हों को कनिंघम ने चतुर्मुखी महादेव की प्रतिमा कहा है, पर एलन से उसे कार्तिकेय माना है। परवर्ती काल में चतुर्मुख शिवलिंग भी पाया जाता है। जैसा कि उज्जैन के पास पिंगलेश्वर में शुंगकालीन चतुर्मुखी शिवलिंग है। उज्जैन की एक खंडित रजत मुद्रा पर एक पुरूष और एक स्त्री प्रदर्शित है, जिसे विद्वानों ने शिव -पार्वती का स्वारूप माना है। शिव के दक्षिण भाग पर पार्वती है। इसे भगवान शिव के कल्याण सुन्दर रूप का अंकन माना जा सकता है।
महाकाल मंदिर परिसर में शंुग कालीन पुरावशेष पाये गये है। ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में राजा विक्रमादित्य भी महाकाल के भक्त रहें हैं। कालिदास ने अपने ग्रन्थ मेघदूत में महाकाल का सुन्दर चित्रण किया है कि हे! मेघ जब तुम उज्जयिनी जाना तो महाकाल के दर्शन अवश्य करना वहाॅ की सांध्य आरती और सुन्दर नृत्य करती हुई गणिकाओं को अवश्य देखना, इत्यादि। म्ंोघदूत में इस मंदिर को धाम चण्डीश्वरस्य कहा गया है। इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि कालिदास के समय तक महाकाल का भव्य मंदिर प्रसिद्ध था। जनुश्रृतियों के अनुसार मंदिर 121 गज ऊँचा था और इसमें 121 कला उत्कीर्ण स्तम्भ थे। राजा हर्ष ने भी महाकाल मंदिर का विवरण दिया है। बाणभट्ठ ने कादम्बरी एवं भोज (1000-1055 ई.) ने अपनी श्रंृगार मंजरी कथा में महाकाल देवालय का उल्लेख किया है। 11 वीं शताब्दी तक महाकाल मंदिर जीर्ण-शीर्ण हो गया था यही कारण रहा कि मंदिर का पुनर्निमाण 11वीं शताब्दी के आरम्भ में किया गया । मंदिर के शिलालेख में उदयादित्य के साथ ही राजा नरवर्मन (1094 से 1133 ई ) का उल्लेख भी है। राजा उदयादित्य (1070-1086) ने महाकाल मंदिर का जीर्णोद्धार कर भव्यता प्रदान की और शिला पट्ट पर नागबन्ध अभिलेख उत्कीर्ण करवाया।
निर्माण शैली की दृष्टि से वर्तमान मंदिर भूमिज और नागर शैली का सम्मिश्रण है। गर्भगृह का प्रवेश द्वार दक्षिण दिशा वान् है जिसके द्वार शाखा के मध्य लकुलीश उत्कीर्ण है। गर्भगृह में त्रिपुषाकार तांत्रिक ज्येातिर्लिंग है, जिनकी जलाधारी पूर्वमुखी है। प्रतिदिन प्रातः काल भस्म आरती और समय-समय पर होने वाली अनोखी पूजा उनके तांत्रिक पूजा परम्परा केा प्रमाणित करती है। गर्भगृह वितान में विविध मंत्रों का उत्कीर्णांकन है। देवायतन में भगवान शिव परिवार के माॅ पार्वती, गणेश, कार्तिकेय भी विराज मान है। मंदिर का शिखर ऊरू श्रृंग, लघु श्रृंग, कर्णामलक, घटकलश, अमलसारिका, आमलक और बीजपूरक से निर्मित हैं। वर्तमान में इन्हें स्वर्ण से आच्छादित कर दिया गया है। मंदिर के ऊपरी तल पर पूर्व-मुखी औकंारेश्वर शिव लिंग है। द्वार पर उनके क्षेत्रपालगण विराज मान है। मंदिर की पिछली दीवार पर शिव परिवार के विविध देव स्थापित है। ऊपर भगवान शिव की नागचन्द्रेश्वर रूप की प्रतिमा स्थापित है जो वर्ष में मात्र एक बार ही नागपंचमी के दिन दर्शन को प्राप्त होती है। प्रतिमा में भगवान शिव अपने परिवार सहित ललितासान मुद्रा में विराजमान हैं।
महाकाल मूलतः नगर के रक्षक देवता कहे गये। मंदिर परिसर में परमार कालीन विविध शैव धर्म से सम्बन्धित प्रतिमाएँ संरक्षित हैं, लोग श्रृद्धा से दर्शन कर अपने को धन्य समझते हंै। इसी परिसर से एक महाकाल क्षेत्रपाल की भव्य स्थानक प्रतिमा प्राप्त हुई है, जो वर्तमान में प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व अध्ययन शाला विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के संग्रहालय में प्रदर्शित है। 10वीं शताब्दी की यह चतुर्भुजी प्रतिमा के बाएँ हाथ में खट्वांग है जिसके बाँयी आँख से सर्प निकलता हुआ दिखाया गया है। तथा शेष हाथ खण्डित हो गए है। देव विविध प्रकार के घन्टा युक्त रूद्राक्ष मालाएँ धारण किए हुए है। शिर जटामुकुट सर्प से युक्त है। नीचे वाहन नंदी है। यह विशालकाय प्रतिमा तांत्रिक दृष्टि से क्षेत्रपाल महाकाल की निर्मित दिखाई देती है।
स्कन्दपुराण के अनुसार महाकाल वन एक योजन विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ था, जिसमें पाँच स्थान के नामों का महत्व बतलाया गया है। यहाँ पाप नष्ठ होने से क्षेत्र, मातृदेवियों का स्थान होने से पीठ, मृत्यु के बाद उत्पन्न न होने से ऊषर, शिव प्रिय हाने से गृह्य तथा भूतों का प्रिय स्थान होने से श्मशान कहलाता है। उज्जयिनी के सिवाय ये स्थान नाम अन्यत्र कहीं नहीं पाये जाते हैं। श्रृद्धा भक्ति से यहाँ किया गया निवास मोक्षदायी माना गया है। मंदिर के परिसर में अनेकों शिवलिंग ,देव-देवियाँ, शक्तिपीठ एवं सरोवर है तथा सभी साधना-उपासना के उपकरण हैं, ये महाकाल के देवकुल कहलाते है। शैवों, कापालिकों तथा पाशुपतों का यह आराधना – स्थल रहा है। पुराणों और अन्य धार्मिक ग्रन्थों में यहाँ के नदीें, तालाबों, कुण्डों को धार्मिक महत्व मिला। इस महत्व के कारण यह नगर धार्मिक यात्रियों तथा पर्यटकों का केन्द्र बना और जैनों तथा बौद्धों ने भी इस नगर को अपने मंदिरों, मठों, उपाश्रयों, संघारामों और चैत्य स्तूपों से खंचित कर दिया था।
महाकाल उज्जैन के ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण मालवा के आस्था केन्द्र रहें है। यही कारण है कि मालवा और निमाड़ के विभिन्न स्थानों पर महाकाल के ज्योर्तिलिंग के अनुकरण पर बाद में अनेक मंदिर बनाये गये। निमाड़ के प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग ओंकारेश्वर के ऊपरी तल पर महाकाल का मंदिर है, जिस प्रकार उज्जैन के महाकाल मंदिर के ऊपरी तल पर औंकारेश्वर का मंदिर है। इसके अतिरिक्त खरगोन, मंदसौर, रतलाम, देवास, महिदपुर, सागर, धार, मुरैना में भी महाकाल के मंदिर निर्मित किए गए। महाकाल का प्रभाव भारत के बाहर भी देखने को मिलता है। विशेषकर नेपाल में वर्तमान महाकाल की मुखसहित प्रतिमा का चित्र प्राप्त होता है। महाकाल के प्रति अगाध श्रृद्धा के कारण उनके स्वरूप की नित्य अर्चना के लिए आस्थावानों ने अपनी -अपनी बस्ती में भी महाकाल के मंदिर बनवा लिए है। दक्षिण एशिया जकार्Ÿाा में भी महाकाल की एक विशाल पुरूषाकार प्रतिमा हाथ में खड्ग लिए वहाँ के प्राचीन संग्रहालय में प्रमुखता से प्रदर्शित है।
ऐसा कोई आस्तिक नहीं था, जिसने मालवा से गुजरते हुए, उज्जैन की यात्रा कर महाकाल के दर्शन न किए हों यहाँ तक की भारतीय आक्रांता भी चाहे मालवा के राजा को पराजित कर अपने चरणों में झुकाते रहें, पर स्वयं महाकाल के चरणों पर सदा नतमस्तक होते रहें। सन 1235-36 ई. में दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश ने उज्जैन पर आक्रमण कर महाकाल का मंदिर क्षतिग्रस्त कर दिया था और विक्रमादित्य की पीतल की और महाकाल की पाषाण मूर्ति को दिल्ली ले गया । लेकिन आगे के तत्कालीन मुस्लिम शासकों ने मंदिर के प्रति अपनी आस्था प्रकट कर सहायता प्रदान की। उज्जैन के महाकाल से सम्बन्धित अनेक फारसी सनदें प्राप्त हुई है। 21 फरवरी 1409 ई. को सुल्तान हुसंगशाह गौरी द्वारा एक सनद् जारी की थी कि महाकाल के भेट हेतू हर घर से एक रूपया लिया जावे । मुगलकाल में यह आदेश जारी किया गया था कि महाकाल परिसर में सेना के घोड़े न बाँधे जाएँ इससे वहाँ की पवित्रता और शान्ति खण्डित होती है। दीन-ए- इलाही के प्रवर्Ÿाक अकबर ने भी उज्जैन की याात्रा की थी । शाह जहाँ (1640 ई.) एवं उसके कनिष्ठ पुत्र सुल्तान मुहम्मद मुरादबरूण ने अक्टोबर 1651 ई. में महाकाल मंदिर में दीपकों के लिए चार सेर घी प्रतिदिन देने का आदेश दिया था। औरंगजेब ने भी मंदिर को दान दिया था। कतिपय मुगल शासकों ने भी महाकाल की अर्चना के लिए दान कर धार्मिक सहिष्णुता प्रकट की थी। आंचलिक क्षेत्र की जन-जातियों में भी महाकाल के प्रति लोक प्रियता रही है।
महाकाल का वर्तमान मंदिर 18 (सन् 1734-36 ई.) वीं शताब्दी के छठे दशक में राणों जी सिन्धिया की महारानी बायजा बाई शिंदे के दीवान रामचन्द्र बाबा शेणवी ने पुनर्निमाण करवाया। और सावन की सावारियों की निकालने की परम्परा प्रारम्भ की। जिनका अस्तित्व आज बना हुआ है।
इस प्रकार पुरातात्विक साक्ष्यों के अनुसार उज्जयिनी में महाकाल सभी धर्मों की श्रृद्धा का केन्द्र रहें है, और आज भी भारत के प्रसिद्ध बारह ज्येातिर्लिंग तीर्थ स्थलों में उनकी गणना की जाती है। धन्यवाद।
भगवान महाकालेश्वराः नमः ।
मंदिर निर्माण की परम्परा भारत में अत्यन्त प्राचीन रही है। वास्तु शास्त्रों में मंदिर की रचना के बारे में भी प्र्याप्त निर्देश प्राप्त है। ईस्वी पूर्व की सदियों में भी मंदिर निर्माण के कई उल्लेख प्राप्त होते हे। महाकाल पुराण वर्णित पुरातन शिवलिंग है। अतः इनके काल को जान पाना कठिन है।
शिवपुराण के अनुसार श्रीकृष्ण के पालक नन्द से आठ पीढ़ी पूर्व (लगभग 5400 ईसापूर्व) यह देव स्थान पहली बार बना होगा और शिलिंग की सथापना हुई होगी।
लिंग पूजन का महत्वः-
वृक्षस्य मूलसंचेन यथा शाखोपशाखिकाः
तथा तस्यार्चया देवास्तथा स्युस्तद्विभूतयः।।6।।
अर्थात- जिस प्रकार वृक्ष के मूल के सींचने से उसको सभी शाखा और उप शाखाओं की उस सिंचन से तृप्त हो जाया करती है, उसी भाॅति उस एक ही शिव लिंग की अर्चना से उसकी विभूति स्वरूप समस्त देवों की तृप्ति हुआ करती है। अर्थात सर्वदेव प्रसन्न हो जाते है।
तीसरी षताब्दी ईसापूर्व में महाकाल प्रकार की मुद्रा उज्जयनी में पायी गई है। जिसमें भगवान शिव जटाजूअ सहित हाथ में काल रूपी दण्ड लिए हुए है। पृश्ठ भाग पर उज्जयिनी चिन्ह बना हुआ है। हलाकि विद्धानों में मतभेद है किन्तु अघिकांश विद्धान इसे महाकाल का ही तर्मिमानते है। पुरातन काल से आस्थावान् भŸागण उज्जयिनी के महाकाल की अर्चना करते आ रहें है। विक्रमादित्य, गुप्त, भोज, आदि राजा, प्रजा महाकाल के प्रति अपनी अमित आस्था प्रकट करते आ रहे है।धार्मिक एवं सांस्कृतिक नगरी है। पुरातत्व साक्ष्यों के अनुसार आज जहाँ उज्जयिनी बसी हुई है वह पुरातन उज्जयिनी का क्षेत्र नहीं है किन्तु यह महाकाल वन के श्मशान की जगह पर बसी हुई है। और शिव पुराण में द्वाद्वश ज्योर्तिलिंगों की सूची औार कथाएँ प्राप्त हेाती हैं। इन ज्सेतिंलिंगों की सूची इस प्रकार है सौरश्ट में सोमनाथ, श्रीशैल मल्लल्लिकार्जुन, उज्जैन मे महाकाल, डाकिनी में भीमशंकर, परली में वैद्यनाथ, ओंकार में ममलेश्वर, सेतूबन्ध में रामेश्वर, दारूकावन में नागेश, वाराणसी में विश्वनाथ, गोमती के तट पर ़त्रयम्बक, हिमालय में केदार और शिववालय में घृश्मेश्वर । ये द्वाद्वश ज्येर्तिलिंग भारत को प्रत्येक दिशा से परिवृत करते है।