लेखक:पंडित आशीष जोशी
श्राद्ध पक्ष में उज्जैन स्थित गया कोठा का विशेष महत्व है। इसके पीछे एक कथा है कि भगवान श्रीकृष्ण और बलराम ने उज्जैन में गुरु सांदीपनि से शिक्षा ग्रहण की थी। स्कंद पुराण के अवंतिका खंड के अनुसार शिक्षा प्राप्त करने के बाद जब श्रीकृष्ण ने गुरु सांदीपनि से कहा कि आपको गुरु दक्षिणा में क्या दे सकता हूं तब उन्होंने कहा था कि मुझे कुछ नहीं चाहिए। मैं आपको शिक्षा देकर ही धन्य हो गया। तब गुरु माता अरुंधति ने श्रीकृष्ण से कहा था कि उनके सात गुरु भाइयों को गजाधर नामक राक्षस अपने साथ ले गया है। वे उन सभी को लेकर आए। तब श्रीकृष्ण ने कहा कि छह भाइयों का गजाधर वध कर चुका है। उन्हें लेकर आऊंगा तो यह प्रकृति के विरुद्ध होगा। एक अन्य गुरु भाई को उसने पाताल लोक में छुपाकर रखा है। वे उसे ला सकते हैं। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने गयाधर का रूप धारण कर गजाधर का वध किया था और उक्त गुरु भाई को उनके पास लाकर सुपुर्द किया था। तब गुरु माता ने छह गुरु भाइयों के मोक्ष का सरल उपाय बताने को कहा था।
उनका कहना था कि गुरु सांदीपनि नदी पार नहीं कर सकते। तब श्रीकृष्ण ने बिहार के गया में स्थित फल्गु नदी को गुप्त रूप से उज्जैन में प्रकट किया था। यह अंकपात मार्ग स्थित सांदीपनि आश्रम के पास स्थित है। यह स्थान ‘गयाकोठा’ कहलाता है।
गयाकोठा तीर्थ पर भगवान श्री विष्णु के सहस्त्र चरण विद्यमान हैं। जिन पर दुग्धाभिषेक कर यहां आने वाले अपने पितरों की मुक्ति और मनोवांछित फल प्राप्त करते हैं। हालांकि श्राद्धपक्ष के प्रारंभ में और सर्वपितृ अमावस्या पर यहां पूजन करने वालों की अधिक तादाद होती है मगर अन्य दिनों में भी यहां लोग बडी संख्या में आकर दर्शन लाभ लेते हैं। माना जाता है कि भगवान श्री विष्णु के ये चरण आदि काल से हैं। इनका पूजन कर भक्त अपने को धन्य मानते हैं। दूसरी ओर मंदिर के बाहर एक तालाब है। जिसमें पर्व विशेष पर महिलाओं द्वारा स्नान किया जाता है। मंदिर परिसर में ही महादेव का मंदिर भी है। इस मंदिर के दर्शन करने और यहां अभिषेक करवाने से व्यक्ति समस्त प्रकार के ऋणों और बंधनों से मुक्त हो जाता है।
यूं तो गयाकोठा मंदिर में श्रद्धालु अपनी इच्छा से जो चढा देते हैं स्वीकार हो जाता है मगर पितरों की शांति के निमित्त भगवान श्री विष्णु के सहस्त्र चरण कमलों में दूध और जल चढ़ाने से अधिक पुण्यलाभ मिलता है और इसका श्राद्ध पक्ष में और भी महत्व बढ़ जाता है ।
हिंदू मान्यता में श्राद्ध का बहुत महत्व है। शाब्दिक अर्थ में श्राद्ध अर्थात् श्रद्धा से किया गया कोई कर्म जो हम अपने पूर्वजों की इच्छा पूर्ति और सद्गति के निमित्त करते हैं। अर्थात् जिस तरह से आजीवन हम अपने माता पिता की सेवा करते हैं। उसी प्रकार उनकी मृत्यु हो जाने के बाद आत्मा की परमगति और उनके प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने के लिए उन्हें श्राद्ध के माध्यम से पूजा जाता है। माना जाता है कि श्राद्ध न करने पर पितरों की अतृप्त इच्छाओं के कारण वासनायुक्त पितर अनिष्ट शक्तियों के दास बन जाते हैं।
हालांकि आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जो हिंदू धर्म आत्मा को अजन्मा, नित्य, अलौकिक जानता है वही इसे अतृप्त वासनाओं में फंसा हुआ मानता है। ऐसा क्यों। ऐसा इसलिए क्योंकि मरने के बाद जीवात्मा की जो गति होती है। वह उस जन्म में किए उसके कर्मों के फलस्वरूप होती है। जीवात्मा मरने के कुछ दिन तक उस शरीर और उस शरीर से जुड़े सगे संबंधियों से जुड़ा रहता है। अंतिम क्रिया कर्म की विधी पूरी होने के बाद वह जीवात्मा उस बंधन से मुक्त हो जाता है। मुक्त होने के कुछ समय बाद भी वह जीवात्मा अलग अलग सूक्ष्म योनियों में भटकता रहता है।
जिसमें वह अपने उस जन्म के संबंधियों और विषयवासनाओं से यदि मुक्त नहीं हो पाता तो वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति होने तक या फिर विधिविधान से उसकी मुक्ति के लिए किए जाने वाले कर्मों तक सूक्ष्म योनि में भटकता ही रहता है। गरूड़ पुराण और अन्य पुराणों में ऐसी मान्यता वर्णित है। ऐसे जीवात्मा की मुक्ति हेतु श्राद्ध सर्वाधिक उपयुक्त कहे गए हैं। ये श्राद्धकर्म विभिन्न प्रकार के होते हैं। जो कि श्राद्ध पक्ष के अलावा भी किए जाते हैं। मगर प्रमुखरूप से प्रतिवर्ष पितरों की शांति के निमित्त किए जाने वाले श्राद्ध नियमितरूप से श्राद्ध पक्ष में किए जाते हैं। जो कि भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से प्रारंभ माना जाता है। यह श्राद्ध पक्ष अमावस्या जिसे सर्वपितृ अमावस्या के नाम से जाना जाता है, तक चलता रहता है। जिसमें व्यक्ति की मृत्यु की तिथी पर श्राद्ध किया जाता है।
गया जी (बिहार) में व्यक्ति माता-पिता के ऋण से मुक्त होता है। लेकिन उज्जैन के गया कोठा में स्वयं के ऋण से भी उसे मुक्ति मिलती है। यहां प्रत्येक तिथि के चरण विराजमान हैं। यहां इन चरणों और सप्तऋषि की साक्षी में कर्म किया जाता है। यहां पितृ शांति और महालय श्राद्ध भी किया जाता है। इसीलिए गयाकोठा का पुराणों में भी विशेष महत्व है ।
पितृपक्ष 25 सितंम्बर से शुरू श्राद्ध कर्म:
भारतीय शास्त्रों में ऐसी मान्यता है कि पितृगण पितृपक्ष में पृथ्वी पर आते हैं और 15 दिनों तक पृथ्वी पर रहने के बाद अपने लोक लौट जाते हैं। शास्त्रों में बताया गया है कि पितृपक्ष के दौरान पितृ अपने परिजनों के आस-पास रहते हैं इसलिए इन दिनों कोई भी ऐसा काम नहीं करें जिससे पितृगण नाराज हों। पितरों को खुश रखने के लिए पितृ पक्ष में कुछ बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिए। पितृ पक्ष के दौरान , जामाता, भांजा, मामा, गुरु, नाती को भोजन कराना चाहिए। इससे पितृगण अत्यंत प्रसन्न होते हैं भोजन करवाते समय भोजन का पात्र दोनों हाथों से पकड़कर लाना चाहिए अन्यथा भोजन का अंश राक्षस ग्रहण कर लेते हैं जिससे ब्राह्मणों द्वारा अन्न ग्रहण करने के बावजूद पितृगण भोजन का अंश ग्रहण नहीं करते हैं।
पितृ पक्ष में द्वार पर आने वाले किसी भी जीव-जंतु को मारना नहीं चाहिए बल्कि उनके योग्य भोजन का प्रबंध करना चाहिए। हर दिन भोजन बनने के बाद एक हिस्सा निकालकर गाय, कुत्ता, कौआ अथवा बिल्ली को देना चाहिए। मान्यता है कि इन्हें दिया गया भोजन सीधे पितरों को प्राप्त हो जाता है। शाम के समय घर के द्वार पर एक दीपक जलाकर पितृगणों का ध्यान करना चाहिए।
हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार जिस तिथि को जिसके पूर्वज गमन करते हैं, उसी तिथि को उनका श्राद्ध करना चाहिए। इस पक्ष में जो लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं, उनके समस्त मनोरथ पूर्ण होते हैं। जिन लोगों को अपने परिजनों की मृत्यु की तिथि ज्ञात नहीं होती, उनके लिए पितृ पक्ष में कुछ विशेष तिथियां भी निर्धारित की गई हैं, जिस दिन वे पितरों के निमित्त श्राद्ध कर सकते हैं।
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा: इस तिथि को नाना-नानी के श्राद्ध के लिए सही बताया गया है। इस तिथि को श्राद्ध करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है। यदि नाना-नानी के परिवार में कोई श्राद्ध करने वाला न हो और उनकी मृत्युतिथि याद न हो, तो आप इस दिन उनका श्राद्ध कर सकते हैं। पंचमी: जिनकी मृत्यु अविवाहित स्थिति में हुई हो, उनका श्राद्ध इस तिथि को किया जाना चाहिए।
नवमी: सौभाग्यवती यानि पति के रहते ही जिनकी मृत्यु हो गई हो, उन स्त्रियों का श्राद्ध नवमी को किया जाता है। यह तिथि माता के श्राद्ध के लिए भी उत्तम मानी गई है। इसलिए इसे मातृनवमी भी कहते हैं। मान्यता है कि इस तिथि पर श्राद्ध कर्म करने से कुल की सभी दिवंगत महिलाओं का श्राद्ध हो जाता है।
एकादशी और द्वादशी: एकादशी में वैष्णव संन्यासी का श्राद्ध करते हैं। अर्थात् इस तिथि को उन लोगों का श्राद्ध किए जाने का विधान है, जिन्होंने संन्यास लिया हो।
चतुर्दशी: इस तिथि में शस्त्र, आत्म-हत्या, विष और दुर्घटना यानि जिनकी अकाल मृत्यु हुई हो उनका श्राद्ध किया जाता है जबकि बच्चों का श्राद्ध कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को करने के लिए कहा गया है।
सर्वपितृमोक्ष अमावस्या: किसी कारण से पितृपक्ष की अन्य तिथियों पर पितरों का श्राद्ध करने से चूक गए हैं या पितरों की तिथि याद नहीं है, तो इस तिथि पर सभी पितरों का श्राद्ध किया जा सकता है। शास्त्र अनुसार, इस दिन श्राद्ध करने से कुल के सभी पितरों का श्राद्ध हो जाता है। यही नहीं जिनका मरने पर संस्कार नहीं हुआ हो, उनका भी अमावस्या तिथि को ही श्राद्ध करना चाहिए। बाकी तो जिनकी जो तिथि हो, श्राद्धपक्ष में उसी तिथि पर श्राद्ध करना चाहिए। यही उचित भी है।
पिंडदान करने के लिए सफेद या पीले वस्त्र ही धारण करें। जो इस प्रकार श्राद्धादि कर्म संपन्न करते हैं, वे समस्त मनोरथों को प्राप्त करते हैं और अनंत काल तक स्वर्ग का उपभोग करते हैं। विशेष: श्राद्ध कर्म करने वालों को निम्न मंत्र तीन बार अवश्य पढ़ना चाहिए। यह मंत्र ब्रह्मा जी द्वारा रचित आयु, आरोग्य, धन, लक्ष्मी प्रदान करने वाला अमृतमंत्र है-
*देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिश्च एव च। नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्त्युत !!*
(वायु पुराण) ।।
श्राद्ध सदैव दोपहर के समय ही करें। प्रातः एवं सायंकाल के समय श्राद्ध निषेध कहा गया है। हमारे धर्म-ग्रंथों में पितरों को देवताओं के समान संज्ञा दी गई है। ‘सिद्धांत शिरोमणि’ ग्रंथ के अनुसार चंद्रमा की ऊध्र्व कक्षा में पितृलोक है जहां पितृ रहते हैं। पितृ लोक को मनुष्य लोक से आंखों द्वारा नहीं देखा जा सकता। जीवात्मा जब इस स्थूल देह से पृथक होती है उस स्थिति को मृत्यु कहते हैं। यह भौतिक शरीर 27 तत्वों के संघात से बना है। स्थूल पंच महाभूतों एवं स्थूल कर्मेन्द्रियों को छोड़ने पर अर्थात मृत्यु को प्राप्त हो जाने पर भी 17 तत्वों से बना हुआ सूक्ष्म शरीर विद्यमान रहता है।
हिंन्दु मान्यताओं के अनुसार एक वर्ष तक प्रायः सूक्ष्म जीव को नया शरीर नहीं मिलता। मोहवश वह सूक्ष्म जीव स्वजनों व घर के आसपास घूमता रहता है। श्राद्ध कार्य के अनुष्ठान से सूक्ष्म जीव को तृप्ति मिलती है इसीलिए श्राद्ध कर्म किया जाता है।
ऐसा कुछ भी नहीं है कि इस अनुष्ठान में जो भोजन खिलाया जाता है वही पदार्थ ज्यों का त्यों उसी आकार, वजन और परिमाण में मृतक पितरों को मिलता है। वास्तव में श्रद्धापूर्वक श्राद्ध में दिए गए भोजन का सूक्ष्म अंश परिणत होकर उसी अनुपात व मात्रा में प्राणी को मिलता है जिस योनि में वह प्राणी है।attacknews.in