इलाहाबाद, 24 सितम्बर । हिंदू संस्कृति में मनुष्य पर माने गये सबसे बड़े ऋण “ पितृ ऋण’’ से मुक्त होने के लिए निर्धारित विशेष समयकाल “ पितृपक्ष ” की शुरूआत मंगलवार से हो रही है । इस दौरान सनातन धर्म के अनुयायी अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक पूर्वजों का मुक्तिकर्म अर्थात श्राद्ध करेंगे।
हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण प्रमुख माने गए हैं, इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है। पितृ ऋण में पिता के अतिरिक्त माता तथा पूर्वज सम्मिलित हैं। पितृपक्ष में प्रत्येक परिवार में मृत माता-पिता का श्राद्ध किया जाता है, परंतु “गया श्राद्ध” का विशेष महत्व है।
यूं तो पितृपक्ष 15 दिनों का होता है लेकिन इस बार षष्ठी तिथि का क्षय होने से श्राद्ध पक्ष 14 दिन का है। पितृपक्ष मंगलवार से शुरू शुरू होकर आठ अक्टूबर तक होगा।
वैदिक शोध एवं सांस्कृतिक प्रतिष्ठान कर्मकाण्ड प्रशिक्षण केंद्र के आचार्य डॉ. आत्माराम गौतम ने बताया कि भारतीय संस्कृति में अश्विन मास का कृष्ण पक्ष पितरों को समर्पित है। वाल्मीकि रामायण में सीता द्वारा पिंडदान देने से दशरथ की आत्मा को मोक्ष मिलने का संदर्भ आता है। अपने वनवास काल में भगवान राम ,लक्ष्मण और सीता पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध करने के लिए “गया धाम” गये थे।
आचार्य गौतम ने पुराणों और शास्त्रों का हवाला देते हुए बताया कि श्रद्धापूर्वक श्राद्ध किए जाने से पितर वर्ष भर तृप्त रहते हैं और उनकी प्रसन्नता से वंशजों को दीर्घायु, संतति, धन, विद्या, सुख एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है। उन्होंने बताया कि मार्कण्डेय और वायु पुराण में कहा गया है कि किसी भी परिस्थिति में पूर्वजों के श्राद्ध से विमुख नहीं होना चाहिए लेकिन व्यक्ति सामर्थ्य के अनुसार ही श्राद्ध कर्म करे।
उन्होने बताया कि सभी प्रकार के श्राद्ध पितृ पक्ष के दौरान किए जाने चाहिए। लेकिन, अमावस्या का श्राद्ध ऐसे भूले बिसरे लोगों के लिए ग्राह्य होता है जो अपने जीवन में भूल या परिस्थितिवश अपने पितरों को श्रद्धासुमन अर्पित नहीं कर पाते। श्राद्ध में कुश और काला तिल का बहुत महत्त्व होता है। दर्भ या कुश को जल और वनस्पतियों का सार माना जाता है। श्राद्ध वैदिक काल के बाद से शुरू हुआ। वसु, रुद्र और आदित्य श्राद्ध के देवता माने जाते हैं।
श्राद्ध के लिए चावल को मिट्टी के हंड़िया में पका कर उसका लड्डू बनाया जाता है। उसके बाद उसे पत्तल पर रखते हैं। कर किसी पात्र में दूध, जल, काला तिल और पुष्प लेकर कुश के साथ तीन बार तर्पण करना होता है1 बायें हाथ में जल लेकर दायें दाहिने हाथ के अंगूठे को पृथ्वी की तरफ करते हुए लड्डुओं पर डालते हैं। पितरों के निमित्त सारी क्रियाएं बायें कंधे मे जनेऊ डाल कर और दक्षिण की ओर मुख करके की जाती है।
डा गौतम ने बताया कि प्रत्येक व्यक्ति के तीन पूर्वज पिता, दादा और परदादा क्रम से वसु, रुद्र और आदित्य के समान माने जाते हैं। श्राद्ध के वक़्त वे ही अन्य सभी पूर्वजों के प्रतिनिधि माने जाते हैं। मान्यता है कि रीति-रिवाजों के अनुसार कराये गये श्राद्ध-कर्म से तृप्त होकर पूर्वज अपने वंशधर को सपरिवार सुख-समृद्धि और स्वास्थ्य का आर्शीवाद देते हैं। श्राद्ध-कर्म में उच्चारित मन्त्रों और आहुतियों को वे अन्य सभी पितरों तक ले जाते हैं।
आचार्य गौतम ने बताया कि उपनिषदों में कहा गया है कि देवता और पितरों के कार्य में कभी आलस्य नहीं करना चाहिए। पितर जिस योनि में होते हैं, श्राद्ध का अन्न उसी योनि के अनुसार भोजन बनकर उन्हें प्राप्त होता है। श्राद्ध जैसे पवित्र कर्म में गौ का दूध, दही और घृत सर्वोत्तम माना गया है। धर्मशास्त्र में पितरों को तृप्त करने के लिए जौ, धान, गेहूँ, मूँग, सरसों का तेल, कंगनी, कचनार आदि का उपयोग बताया गया है।
इसमें आम, बहेड़ा, बेल, अनार, पुराना आँवला, खीर, नारियल, फालसा, नारंगी, खजूर, अंगूर, नीलकैथ, परवल, चिरौंजी, बेर, जंगली बेर, इंद्र जौ के सेवन आदि का भी विधान है। तिल को देव अन्न कहा गया है। काला तिल ही वह पदार्थ है जिससे पितर तृप्त होते हैं। इसलिए काले तिलों से ही श्राद्ध कर्म करना चाहिए।
उन्होंने भारतीय वैदिक वांग्ङमय के हवाले से बताया कि जीवन लेने के पश्चात प्रत्येक मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण होते हैं। पहला देव ऋण, दूसरा ऋषि ऋण और तीसरा पितृ ऋण। पितृपक्ष में श्रद्धापूर्वक श्राद्ध कर्म करके परिजन अपने तीनों ऋणों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं।
श्राद्ध में काला तिल और कुशा का सर्वाधिक महत्त्व होता है। श्राद्ध में पितरों को अर्पित किए जाने वाले भोज्य पदार्थ को पिंडी रूप में अर्पित करना चाहिए। श्राद्ध का अधिकार पुत्र, भाई, पौत्र, प्रपौत्र समेत महिलाओं को भी होता है। जानकारी के अभाव में अधिकांश लोग श्राद्धकर्म को उचित विधि से नहीं करते जो दोषपूर्ण है। क्योंकि शास्त्रानुसार ‘‘ पितरो वाक्यमिच्छन्ति भवमिच्छन्ति देवता” अर्थात देवता भाव से प्रसन्न होते हैं और पित्रगण शुद्ध एवं उचित विधि से किए गए कर्म से।
श्राद्ध-कर्म में पके हुए चावल, दूध और तिल को मिश्रित करके पिण्ड बनाते हैं, उसे ‘सपिण्डीकरण’ कहते हैं। पिण्ड का अर्थ है शरीर। यह एक पारंपरिक विश्वास है, जिसे विज्ञान भी मानता है कि हर पीढ़ी के भीतर मातृकुल तथा पितृकुल दोनों में पहले की पीढ़ियों के समन्वित ‘गुणसूत्र’ उपस्थित होते हैं। चावल के पिण्ड जो पिता, दादा, परदादा और पितामह के शरीरों का प्रतीक हैं, आपस में मिलकर फिर अलग बाँटते हैं।
डा गौतम ने बताया कि व्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार देवताओं को प्रसन्न करने से पहले मनुष्य को अपने पितरों को प्रसन्न करना चाहिए। हिन्दू ज्योतिष के अनुसार पितृ दोष को सबसे जटिल कुंडली दोषों में से एक माना जाता है। पितरों की शांति के लिए प्रत्येक वर्ष भद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से अश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या तक के काल को पितृपक्ष होता है। मान्यता है कि इस दौरान कुछ समय के लिए यमराज पितरों को आजाद कर देते है ताकि वह अपने परिजनों से श्राद्ध ग्रहण कर सकें।
उन्होंने बताया कि कौए को पितरों का रूप माना जाता है। मान्यता है कि श्राद्ध ग्रहण करने के लिए हमारे पितर कौए का रूप धारण कर नियत समय पर घर पर आते हैं। अगर उन्हें श्राद्ध नहीं मिलता है तो वह रूष्ट हो जाते है और श्राप देकर चले जाते है इसलिए श्राद्ध का प्रथम अंश कौओं के लिए निकाला जाता है।
डा गौतम ने बताया कि माता का श्राद्ध नवमी को किया जाता है। जिन परिजनों की अकाल मृत्यु हो उनका श्राद्ध चतुर्दशी को किया जाता है। साधु और सन्यासियों का श्राद्ध द्वादशी को और जिन पितरों की मृत्यु की तिथि ज्ञात नहीं होती उनका अमावस्या के दिन श्राद्ध किया जाता है। इस दिन को ही सर्व पितृ श्राद्ध कहा गया है।
आचार्य गौतम ने बताया ऊर्ध्व भाग पर रह रहे पितरों के लिए कृष्ण पक्ष उत्तम होता है। कृष्ण पक्ष की अष्टमी को उनके दिनों का उदय होता है। अमावस्या उनका मध्याह्न है तथा शुक्ल पक्ष की अष्टमी अंतिम दिन होता है। धार्मिक मान्यता है कि अमावस्या को किया गया श्राद्ध, तर्पण, पिंडदान उन्हें संतुष्टि एवं ऊर्जा प्रदान करते हैं।
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार पृथ्वी लोक में देवता उत्तर गोल में विचरण करते हैं और दक्षिण गोल भाद्रपद मास की पूर्णिमा को चंद्रलोक के साथ-साथ पृथ्वी के नज़दीक से गुजरता है। इस मास की प्रतीक्षा हमारे पूर्वज पूरे वर्ष भर करते हैं। वे चंद्रलोक के माध्यम से दक्षिण दिशा में अपनी मृत्यु तिथि पर अपने घर के दरवाज़े पर पहुँच जाते है और वहाँ अपना सम्मान पाकर प्रसन्नतापूर्वक अपनी नई पीढ़ी को आर्शीवाद देकर चले जाते हैं। ऐसा वर्णन ‘श्राद्ध मीमांसा’ में मिलता है। इस तरह पितृ ॠण से मुक्त होने के लिए श्राद्ध काल में पितरों का तर्पण और पूजन किया जाता है।
हिंदू संस्कृति एवं समाज में अपने पूर्वजों एवं दिवंगत माता-पिता के स्मरण श्राद्ध पक्ष में करके उनके प्रति असीम श्रद्धा के साथ तर्पण, पिंडदान, यक्ष तथा ब्राह्मणों के लिए भोजन का प्रावधान किया गया है। पितरों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध दो तिथियों पर किए जाते हैं,प्रथम मृत्यु या क्षय तिथि पर और दूसरा पितृ पक्ष में। जिस मास और तिथि को पितृ की मृत्यु हुई है अथवा जिस तिथि को उनका दाह संस्कार हुआ है, वर्ष में उम्र उस तिथि को एकोदिष्ट श्राद्ध किया जाता है।
आचार्य गौतम ने बताया कि एकोदिष्ट श्राद्ध में केवल एक पितर की संतुष्टि के लिए श्राद्ध किया जाता है। इसमें एक पिण्ड का दान और एक ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है। यदि किसी को अपने पूर्वजों की मृत्यु की तिथियाँ याद नहीं है, तो वह अमावस्या के दिन ज्ञात-अज्ञात पूर्वजों का विधि-विधान से पिंडदान तर्पण, श्राद्ध कर सकता है। इस दिन किया गया तर्पण करके 15 दिन के बराबर का पुण्य फल मिलता है और घर परिवार, व्यवसाय तथा आजीविका में विशेष उन्नति होती है।
उन्होंने बताया कि यदि परिवार के किसी सदस्य की अकाल मृत्यु हुई है, तो पितृदोष के निवारण के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार उसकी आत्मशांति के लिए किसी पवित्र तीर्थ स्थान पर श्राद्ध करना चाहिए। सामर्थ्यनुसार किसी सुयोग्य कर्मनिष्ठ ब्राह्मण से श्रीमद् भागवत पुराण की कथा अपने पितरों की आत्मशांति के लिए करवा सकते हैं। इससे विशेष पुण्य फल की प्राप्ति होती है। इसके फलस्वरूप परिवार में अशांति, वंश वृद्धि में रुकावट, आकस्मिक बीमारी, धन से बरकत न होना ,सारी सुख सुविधाओं के होते भी मन असंतुष्ट रहना आदि परेशानियों से मुक्ति मिलती है।attacknews.in