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तीर्थराज प्रयाग में दुनिया के सबसे बडे आध्यात्मिक और सांस्कृतिक माघ मेला में विभिन्न संस्कृति और भाषाओं के संगम के साथ कई परम्पराओं का भी एक साथ आदान प्रदान होता है attacknews.in

प्रयागराज, 01 फरवरी । तीर्थराज प्रयाग में दुनिया के सबसे बडे आध्यात्मिक और सांस्कृतिक माघ मेला में विभिन्न संस्कृति और भाषाओं के संगम के साथ कई परम्पराओं का भी एक साथ आदान प्रदान होता है।

त्रिवेणी के विस्तीर्ण रेती पर अलग-अलग भाषा, संस्कृति, परंपरा और पहनावे को एक साथ देखा और महसूस किया जा सकता है। यहां किसी को आने का आमंत्रण व निमंत्रण नहीं दिया जाता बावजूद इसके सब नियत तिथि पर पहुंच कर एक माह का पौष पूर्णिमा के पावन पर्व पर श्रद्धा की डुबकी के साथ ही संयम, अहिंसा, श्रद्धा एवं कायाशोधन के लिए श्कल्पवास करते हैं।

भारत की राष्ट्रीयता का आधार वसुधैव कुटुंबकम का चिंतन रहा है। संगम तट पर विभिन्न संस्कृतियों, भाषा और परंपरा को मिलते देख “लघु भारत” के दर्शन का बोध होता है। प्रयाग प्रजापति का क्षेत्र है जहाँ गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती का मिलन होता हैं।

मत्स्यपुराण में लिखा है कि साठ सहस्त्र वीर गंगा की और स्वयं भगवान भास्कर जमुना की रक्षा करते हैं। यहाँ जो वट है उसकी रक्षा स्वयं शूलपाणि करते हैं। पाँच कुंड हैं जिनमें से होकर जाह्नवी बहती है। माघ महीने में यहाँ सब तीर्थ आकर वास करते हैं। इससे यह महीने पुण्य का फलदायी बताया गया है।

माघ मेला में लोगों की सेवा कर रहे फतेहपुर के भूमा निकेतन आश्रम के करीब 70 वर्षीय बाबा शिव प्रसाद अवस्थी उर्फ पेड़ा बाबा ने बताया कि भारत ने सदैव समूचे विश्व को एक परिवार के रूप में देखा है। भारत सभी के सुख और निरामयता की कामना करता रहा। यहां की यह पहचान मानव समूहों के संगम, उनके सम्मिलन और सहअस्तित्व की लंबी प्रक्रिया से निकल कर बनी है। हम सहिष्णुता से शक्ति पाते हैं बहुलता का स्वागत करते हैं और विविधता का गुणगान करते हैं। यह शताब्दियों से हमारे सामूहिक चित्त और मानस का अविभाज्य हिस्सा है। यही हमारी राष्ट्रीय पहचान है।

गृहस्थ संत चमक दूमक से दूर कड़ाके की ठंड में भी सदैव नंगे पैर रहने वाले बाबा अवस्थी ने बताया कि वह पिछले करीब 40 साल से हर साल माघ मेला आकर अस्थायी आश्रम में गृहस्थ, साधु और संतों समेत वहां पहुंचने वाले किसी भी सम्प्रदाय के लोगों की सेवा नि:स्वार्थ रूप से करते हैं। उन्हें वैराग्य करीब 30 वर्ष की आयु से हो गया । उसके बाद उन्होंने भौतिक सुखों का परित्याग कर दिया।

उन्होंने बताया कि जिस प्रकार “दीपक स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाश देता है उसी तरह अपने को तपाकर दूसरों के लिए जीना ही सच्चे मानवधर्म का कर्तव्य है। इसी को अपना लक्ष्य मानकर दूसरो की पीड़ा से विह्वल बाबा ने बताया कि दूसरों की सेवा कर उन्हें आत्मिक संतोष मिलता है।

बाबा अवस्थी ने बताया कि संगम तट पर तंबुओं की अस्थायी आध्यात्मिक नगरी में दान-दया और परोपकार सहयोग के आधार पर विकसित हुयी मानवता का संगम प्रत्यक्ष देखने को मिलता है। यहां तीर्थयात्री को पवित्रता, मांगलिकता और अमरत्व के भाव से स्नान करने का एक अवसर प्राप्त होता है। प्रयागराज ही वह एक पवित्र स्थली हैं जहां पतित पावनी गंगाए श्यामल यमुना और अन्त: सलिला स्वरूपा में प्रवाहित सरस्वती का मिलन होता है। माघ मेला का आध्यात्मिक, बौद्धिक, पौराणिक और वैज्ञानिक आधार भी है। एक प्रकार से माघ स्नान ज्ञान का अनूठा संगम सामने लाता है।

बाबा अवस्थी ने बताया कि माघ मेला देश की आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक विविधताओं को पल्लवित करने के साथ सामाजिक समरसता, एकता और सद्भाव बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है। दूर दराज से संगम आने वाले श्रद्धालुओं और कल्पवासियों की संस्कृति, भाषा, पहनावा भले ही भिन्न हो लेकिन उनकी मंशा एक ही होती है। वह भले ही एक दूसरे की भाषा नहीं समझते लेकिन उनकी भाव-भंगिमा एक दूसरे से मितव्यता पूर्वक जोड़ती है। किसी के मन में एक दूसरे के प्रति राग और द्वेष नहीं रहता। एक दूसरे की भाषा नहीं समझते हुए भी किसी भी चीज का प्रेम पूर्वक सुगमता से आदान प्रदान करते हैं।

गृहस्थ संत ने बताया कि बारह महीने में से एक महीना अपने स्थान का त्यागकर प्रयाग में आकर रहने से वैराग्य पैदा होता है। यहां पर दान,ध्यान और अन्य धार्मिक कार्यों के करने से एक प्रकार से पुर्नजन्म होता है। क्योंकि परिवार और भौतिक सुखों का प्ररित्याग कर संगम तट पर एक माह का कल्पवास एक कठिन साधाना है। प्रयाग संगम में राजा-रंक, स्वस्थ्य-अस्वस्थ्य, पंगु और कोढ़ी, हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाई आदि सभी श्रद्धा से ओतप्रोत हो आस्था की डुबकी लगाते हैं।

उन्होंने बताया कि उनके आश्रम के शिविर मे विभिन्न सम्प्रदायों के 50 श्रद्धालु रहते हैं।

पकर संक्रांति के पहले स्नान पर्व 14 जनवरी को उनके आश्रम में बांदा जिले के परसौदा गांव निवासी बसीर नामक श्रद्धालु त्रिवेणी में आस्था की डुबकी लगाया और गाांव वापस लौट गया। यहां किसी को कोई असहजता महसूस नहीं होती। डुबकी लगाते समय श्रद्धालु एक दूसरे को न/न जानते हुए भी सहायक बनते हैं। बाबा अवस्थी ने बताया कि माघ मेले का रंग ही ऐसा आध्यात्मिकता से ओतप्रोत होता है जिसमें लोग रच और बस जाना चाहते हैं। यह मेला श्रद्धालुओं को एक निश्चित तिथि पर अपनी तरफ बिना आमंत्रण और निमंत्रण के अपनी ओर आकर्षित करता हैं। यहां आने वाले लोगों को पूरे भारत की विविधता एक स्थान पर सिमटी मिल जाती है और जो लोग आध्यात्मिक पर्यटन पर आते हैं उनके लिए इससे भव्य कोई आयोजन दूसरा नहीं हो सकता।

पुराणों के अनुसार माघ माह में समस्त तीर्थ प्रयाग में एकत्र होते हैं इसीलिए इसे प्रयागराज कहते हैं। महाकवि गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीराचरितमानस में प्रयागराज की महत्ता का वर्णन बहुत रोचक तरीके से इस प्रकार किया है-

“माघ मकर गति रवि जब होई, तीरथपतिहिं आव सब कोई। देव दनुज किन्नर नर श्रेनी सादर मज्जंहि सकल त्रिवेनी।”

इसी भावना के अनुरूप तीर्थराज प्रयाग का माघ मेला, देश और दुनिया के विभिन्न संस्कृति और भाषाओं वाले करोड़ों श्रद्धालुओं का संगम बनता है। यह मेला शांति सामंजस्य और सांस्कृतिक एकता का प्रतीक भी है।

प्रयाग में सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने के साथ शुरू होने वाले एक मास के कल्पवास से एक कल्प ब्रह्मा का एक दिन का पुण्य मिलता है। आदिकाल से चली आ रही इस परंपरा के महत्व की चर्चा वेदों से लेकर महाभारत और रामचरितमानस में अलग-अलग नामों से मिलती है। आज भी कल्पवास नई और पुरानी पीढ़ी के लिए आध्यात्म की राह का एक पड़ाव हैए जिसके जरिए स्वनियंत्रण और आत्मशुद्धि का प्रयास किया जाता है। बदलते समय के अनुरूप कल्पवास करने वालों के तौर.तरीके में कुछ बदलाव जरूर आए हैं लेकिन कल्पवास करने वालों की संख्या में कमी नहीं आई।

उन्होंने बताया कि जिस प्रकार सनातन धर्म को अनादि कहा जाता है उसी प्रकार प्रयाग की महिमा का कोई आदि और अंत नहीं है। ब्रह्मपुराण के अनुसार तीर्थराज प्रयाग सभी तीर्थों में श्रेष्ठ और इसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रदाता कहा गया है। पद्मपुराण में कहा गया है कि यह यज्ञ भूमि है। देवताओं द्वारा सम्मानित इस भूमि में थोड़ा भी किया गया दान का फल अनंत काल तक रहता है।

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