नई दिल्ली 26 जून। 25 जून 1975, रात के करीब साढे आठ बजे राजपथ से एकाएक काफिला गुजरा। उस काफिले की मंजिल थी राष्ट्रपति भवन जहां पहुंच कर इंदिरा गांधी ने तब के राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली से देश में आपातकाल लगाने की बात की। कहा कि अगले दो घंटे में मसौदा आप तक पहुंच जाएगा और आपको उस पर साइन करना है। बस इतना बोल कर वो वापस लौट गईं लेकिन राष्ट्रपति के दस्तखत के बाद देश उस दौर में पहुंच गया जिसे आजाद हिंदुस्तान का सबसे काला काल यानी आपातकाल कहा गया। हम आपको उसी आपातकाल की 20 कहानियां बताने जा रहे हैं।
1. सदियों की ठंढी, बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। 25 जून 1975 की शाम को दिल्ली के रामलीला मैदान में राष्ट्रकवि रामधारी सिंग दिनकर की ये कविता जयप्रकाश नारायण के लिए एक ऐसा नारा बन गया जो इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंक दिया। उस दिन दिल्ली के रामलीला मैदान में जेपी की ऐतिहासिक सभा हुई। उस सभा में दिनकर की कविता की लाइनें सिंहासन खाली करो कि जनता आती है जेपी की जुबान से क्या निकला इस नारे की गूंज में इंदिरा गांधी को अपना सिंहासन डोलता नज़र आया। शाम से रात हुई और उसी रात को इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगाने का फैसला कर लिया। आनन फानन में आपातकाल के मसौदे को अंतिम रूप दिया गया और आधी रात को ही राष्ट्रपति से दस्तखत करवाया गया। यानी आपातकाल तो रात में ही लग गया लेकिन देश को इसकी खबर अगले दिन इंदिरा गांधी के रेडियो संदेश से लगी।
2. अपने उस रेडियो संदेश में इंदिरा गांधी भले ही देशवासियों से आतंकित नहीं होने को कह रही थी लेकिन इमरजेंसी के दौरान हिंदुस्तान में जो भी हुआ वो सियासी आतंक का पर्याय बनता चला गया। देश के बिगड़े अंदरूनी हालात का हवाला देकर वो सब कुछ हुआ जिसने आपातकाल को हिंदुस्तान के इतिहास का काला अध्याय बना डाला। लोकतंत्र को जैसे हथकड़ी लग गई। प्रेस की आजादी पर सेंसर का पहरा बिठा दिया गया। 25 जून 1975 की उस काली रात के पौ फटने के पहले ही विरोधी दलों के नेताओं को अलग अलग जेलों में डाल दिया गया। नेताओं की गिरफ्तारी में ना उम्र का लिहाज रखा गया, ना ही उनके सेहत का। जय प्रकाश नारायण दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान से तड़के 4 बजे गिरफ्तार हुए। अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी, मधु दंडवते बैंगलुरु से गिरफ़्तार हुए तो मोरारजी देसाई, चरण सिंह, विजया राजे सिंधिया, राजनारायण जेल की सलाखों में डाल दिए गए। जो नेता जहां थे, वहीं गिरफ़्तार किए गए। नानाजी देशमुख, जॉर्ज फर्नांडीस, कर्पूरी ठाकुर, सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसे नेता अंडरग्राउंड हो गए।
3. इमरजेंसी लगने से पहले इंदिरा गांधी और ख़ासतौर पर संजय गांधी की मंडली ने दो बातों की तैयारी कर ली थी। पहली, किन नेताओं की गिरफ़्तारी करनी है। इस कड़ी में इमरजेंसी के दौरान क़रीब 13 हज़ार छोटे-बड़े नेताओं को गिरफ्तार किया गया। इसके अलावा कुल 1 लाख लोग जेल में डाले गए। इमरजेंसी लगते जो दूसरी बात हुई, वो थी इंदिरा सरकार के ख़िलाफ़ लिखने वाले प्रेस पर कैसे शिकंजा कसना है। कहा जाता है कि इमरजेंसी लगने के दौर में इंदिरा राज में ये संजय गांधी का पहला शक्ति प्रदर्शन था।
4. देश में अंग्रेजी हुकूमत के दौरान भी प्रेस पर इतने क्रूर सेंसरशिप का शिकंजा नहीं कसा गया था जितना कि आपातकाल के दौरान पाबंदी लगी। उन दिनों दिल्ली के बहादुर शाह ज़फ़र मार्ग पर ज़्यादातर अख़बारों के दफ़्तर थे। प्रेस को सबक सिखाने के लिए 25 जून की आधी रात को बहादुर शाह ज़फ़र मार्ग इलाक़े की बिजली काट दी गई। 26 जून की सुबह ज़्यादातर घरों में अख़बार नहीं पहुंचे। ये हुआ था संजय गांधी और उनकी मंडली के इशारों पर जिसमें हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री बंसीलाल, गृह राज्य मंत्री ओम मेहता, दिल्ली के तत्कालीन गवर्नर किशन चंद और इंदिरा गांधी के निजी सचिव आर के धवन शामिल थे।
5. इमरजेंसी के साथ इंदिरा के छोटे बेटे संजय गांधी सर्वेसवा हो गए। सत्ता भले ही इंदिरा के पास थी लेकिन सत्ता की चाबुक संजय गांधी के हाथों में थी। आपातकाल के दौरान संजय गांधी ने नसबंदी अभियान चलाया। शहर से लेकर गांव-गांव तक नसबंदी शिविर लगाकर लोगों के ऑपरेशन कर दिए गए। ये नसबंदी हुई पुलिस के डर से, प्रशासन के ख़ौफ़ से। कहते हैं कि नसबंदी का आइडिया संजय गांधी को तब आया जब WHO यानी वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन ने आगाह किया कि अगर भारत की आबादी नहीं रुकी तो देश की सेहत ख़राब हो जाएगी। फिर क्या था, डंडों के ज़ोर पर संजय गांधी के इशारों पर क्या 18 साल के नौजवान और क्या 80 साल के बुज़ुर्ग, सबकी नसबंदी कर दी गई।
6. संजय गांधी के नसबंदी अभियान को दिल्ली के मुस्लिम बाहुल इलाक़ों में रुख़साना सुल्ताना नाम की उनकी दोस्त ने चलाया। ये रुख़साना सुल्ताना फ़िल्म एक्ट्रेस अमृता सिंह की मां थीं। रुख़साना ने अकेले पुरानी दिल्ली इलाक़े में एक साल के भीतक 13 हज़ार लोगों की नसबंदी करवा दी। तब अफ़सरों के साथ-साथ कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को भी नसबंदी के टारगेट दिए गए। टारगेट पूरा न करने वालों को संजय गांधी के गुस्से का शिकार होना पड़ता था।
7. देश को आगे बढ़ाने के नाम पर संजय गांधी ने जिन फैसलों को देश के उपर थोपा उसमें साफ़-सफाई और दिल्ली को सुंदर बनाने का भी एजेंडा शामिल था। इमरजेंसी के दौरान पुरानी दिल्ली का तुर्कमान गेट इसका गवाह बना। उस दौर में तुर्कमान गेट के आसपास हज़ारों झुग्गियां थीं। संजय गांधी के इशारों पर अप्रैल 1976 में डीडीए के बुलडोज़र तुर्कमान गेट इलाक़े में पहुंच गए। ख़ुद डीडीए के तत्कालीन वाइस चेयरमैन जगमोहन ने झुग्गियां हटाने के अभियान की अगुवाई की। देखते-देखते डीडीए के बुलडोज़रों ने हज़ारों झुग्गियों को ज़मीदोज़ कर दिया। इसे लेकर भारी विरोध हुआ तो पुलिस ने फ़ायरिग कर दी जिसमें शाह कमीशन की रिपोर्ट के मुताबिक 150 लोग मारे गए।
8. इमरजेंसी लगाने के पीछे की सबसे बड़ी वजह इंदिरा गांधी की सत्ता में बने रहने की लालसा को बताया जाता है। दरअसल इमरजेंसी की नींव की सबसे मजबूत ईंट इलाहाबाद हाईकोर्ट का वो मुकदमा बना जो इंदिरा गांधी पर 1971 में हुए लोकसभा के चुनाव में धांधली का आरोप लगाते हुए राजनारायण ने दाखिल किया था। 1971 के चुनाव में राजनारायण उत्तर प्रदेश की रायबरेली सीट से इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव में हार गए थे। चुनाव के चार साल बाद राजनारायण ने अदालत में इंदिरा की जीत को चुनौती दी थी। 12 जून, 1975 को इलाहाबाद हाइकोर्ट के जज जगमोहन लाल सिन्हा ने ना सिर्फ रायबरेली के उस चुनाव को खारिज कर दिया बल्कि इंदिरा गांधी को दोषी मानते हुए उन पर 6 साल तक चुनाव ना लड़ने की पाबंदी लगा दी।
9. 24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने भी इस फ़ैसले पर मुहर लगा दी थी, हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें प्रधानमंत्री बने रहने की छूट दे दी थी। वो लोकसभा में जा सकती थीं लेकिन वोट नहीं कर सकती थीं। कहा जाता है कि उस फ़ैसले के बाद इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफ़ा देने का मन बना लिया था लेकिन इंदिरा के सहयोगी सिद्धार्थ शंकर रे और संजय गांधी ने उन्हें ऐसा ना करने की सलाह दी। तब इंदिरा कैबिनेट के तमाम सीनियर्स भी इंदिरा के इस्तीफा ना देने के पक्ष में थे। कहा जाता है कि इंदिरा के इसी उहापोह का संजय गांधी और उनके साथियों ने फ़ायदा उठाया। सड़क से सभाओं तक संजय गांधी की प्रायोजित भीड़ इंदिरा के समर्थन में जुटाई गई। इसके पीछे संजय गांधी की मंशा इंदिरा के सामने ये साबित करने की थी कि उनके लिए अभी भी कितना बड़ा जनसमर्थन है।
10. जेपी का भाषण इमरजेंसी का आधार बना लेकिन इसकी पटकथा इंदिरा और सिद्धार्थशंकर राय के दिमाग़ में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फ़ैसले के बाद से तैयार थी। सिद्धार्थ शंकर राय ने इमरजेंसी लगाने का सुझाव दिया, जिस पर पहले इंदिरा तैयार नहीं थीं लेकिन जेपी की सभा के बाद इंदिरा के घर संजय गांधी, गृह राज्य मंत्री ओम मेहता, हरियाणा के मुख्यमंत्री बंसीलाल की मौजूदगी में सिद्धार्थ शंकर रे ने इमरजेंसी का मसौदा तैयार किया।
11. इंदिरा गांधी ने सिद्धार्थ शंकर रे को लेकर तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद के पास गईं। तब इंदिरा का मकसद राष्ट्रपति को इमरजेंसी वाले फैसले को अवगत कराना था। राष्ट्रपति को इसके लिए राजी करा कर इंदिरा वापस लौट आईं। फिर इमरजेंसी के अंतिम मसौदे को लेकर इंदिरा गांधी के निजी सचिव आर के धवन राष्ट्रपति के पास गए। कहते हैं राष्ट्रपति नींद से जागकर आधी रात के वक्त इमरजेंसी के मसौदे पर हस्ताक्षर कर दिए।
12. देश में इमरजेंसी क्या लगी जैसे सरकार को संविधान के साथ मनमानी करने का वीटो मिल गया। इमरजेंसी के दौरान संविधान और कानून को जम कर तोड़ा-मरोड़ा गया। इंदिरा गांधी को सबसे पहले राजनारायण के मुकदमे पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले और सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम फैसले का तोड़ खोजना था इसलिए इन फैसलों को पलटने वाला कानून लाया गया। संविधान में संशोधन कर इस बात की कोशिश की गई कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष पर ताउम्र कोई मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। इस संशोधन को राज्यसभा ने पारित भी कर दिया लेकिन इसे लोकसभा में पेश नहीं किया गया।
13. इमरजेंसी के बहुत बाद अपने एक एक इंटरव्यू में इंदिरा गांधी ने कहा था कि उन्हें लगता था कि भारत को शॉक ट्रीटमेंट की जरूरत है लेकिन कहा जाता है कि इस शॉक ट्रीटमेंट की प्लानिंग 25 जून से 6 महीने पहले ही बन चुकी थी। 8 जनवरी 1975 को सिद्धार्थ शंकर रे ने इंदिरा को एक चिट्ठी में आपातकाल का पूरा प्लान लिख भेजा था। चिट्ठी के मुताबिक ये योजना तत्कालीन कानून मंत्री एच आर गोखले, कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ और बांबे कांग्रेस के अध्यक्ष रजनी पटेल के साथ उनकी बैठक में बनी थी। हालांकि शुरू में इसे इंदिरा ने एक सिरे से खारिज कर दिया था लेकिन अपने खिलाफ लागातर बदलते हालात और सत्ता की लालच के हाथो मजबूर होकर इमरजेंसी लगाने का फैसला कर लिया।
14. कहा जाता है कि इमरजेंसी के दौरान भले ही प्रधानमंत्री की कुर्सी पर इंदिरा आसीन थी लेकिन फैसले की लंबी फेहरिस्त संजय गांधी की हुआ करती थी। संजय के कई फैसले ऐसे भी होते थे जिसके बारे में इंदिरा गांधी तक को जानकारी नहीं होती थी। संजय ने तब समाज का आइना कहे जाने वाले सिनेमा तक को नहीं बख्सा था। संजय गांधी के चहेते और तबके सूचना एवं प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने तो मशहूर गायक किशोर कुमार के गानों को आकाशवाणी पर बैन कर दिया था। यहां तक कि उनके घर पर इनकम टैक्स के छापे डलवाए गए। वजह सिर्फ इतनी थी कि किशोर कुमार ने संजय गांधी के एक कार्यक्रम में गाना गाने से इनकार कर दिया था।
15. इमरजेंसी के दौरान फिल्मों की सेंसरशिप भी इतनी सख्त हो गई थी कि थिएटर के परदे पर पहुंचने से पहले फिल्मों को सरकार की मंजूरी लेनी पड़ती थी। इसी दौर में गुलजार की फिल्म आंधी पर भी बैन लगा दिया गया। कहा जाता है कि आंधी फिल्म की नायिका सुचित्रा सेन का किरदार इंदिरा गांधी से मिलजा जुलता था और आरती देवी के किरदार के चलते इंदिरा गांधी की गलत तस्वीर पेश होती है।
16. आपातकाल के दौरान किस्सा कुर्सी का नाम की फिल्म की प्रिंट तक जला दी गई। कहा जाता है प्रिंट जलाने का काम संजय गांधी के इशारे पर किया गया था। फ़िल्म किस्सा कुर्सी का जनता पार्टी सांसद अमृत नाहटा ने बनाई थी। प्रिंट की खोज के लिए कई स्थानों पर छापे डाले गए। अमृत नाहटा को जमकर प्रताड़ित किया गया। इसकी वजह ये थी कि ये फिल्म संजय गांधी पर बनाई गई पॉलिटिकल स्पूफ थी। आगे चल कर 1978 में इसे दोबारा बनाया गया और इमरजेंसी के बाद बने शाह कमीशन ने संजय गांधी को फिल्म के प्रिंट जलाने के मामले में दोषी पाया और कोर्ट ने उन्हें जेल भेज दिया लेकिन बाद में फैसला पलट दिया गया।
17. इमरजेंसी के बाद साल 1978 में नसबंदी नाम से फिल्मकार आई एस जौहर की फिल्म आई। ये इत्तेफ़ाक़ था या फिर सोचा समझा कदम लेकिन फिल्म के इस गीत को उसी किशोर कुमार की आवाज में रिकॉर्ड किया गया जिनके गानों को रेडियो पर बैन कर दिया था।
18. नसबंदी फ़िल्म संजय गांधी के नसबंदी कार्यक्रम का स्पूफ़ था जिसमें उस दौर के बड़े सितारों के डुप्लिकेटों ने काम किया था। फिल्म में दिखाया गया कि किस तरह से नसंबदी के लिए ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को पकड़ा गया। इमरजेंसी और नसबंदी पर तंज़ भरे बोल वाले इस गीत को हुल्लड़ मुरादीबादी ने लिखा था।
19. जून 1976 में इंदिरा गांधी के करीबियों ने उन्हें ये मशविरा दिया कि लोकसभा की मियाद 5 साल से बढ़ा कर 6 साल कर देना चाहिए और इमरजेंसी लागू रहे लेकिन कहते हैं कि 19 महीने के आपातकाल के बाद उन्हें अपनी गलती और लोगों के गुस्से का अंदाजा हो चला था। 18 जनवरी 1977 को इंदिरा गांधी ने अचानक ही मार्च में लोकसभा चुनाव कराने का ऐलान कर दिया। इंदिरा गांधी आपातकाल के जरिए जिस विरोध को शांत करना चाहती थीं, उसी ने 21 महीने में देश का बेड़ागर्क कर दिया। इमरजेंसी के बाद अपने एक इंटरव्यू में इंदिरा गांधी ने कहा था कि आपातकाल लगने पर विरोध में कुत्ते भी नहीं भौंके थे।
20. इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में इंदिरा गांधी को करारा शिकस्त मिला। खुद तो हारी हीं बेटे संजय गांधी भी अपनी सीट नहीं बचा पाए। 22 मार्च 1977 को मोरारजी देसाई की अगुवाई में जनता पार्टी की मिली जुली सरकार बनी और आपातकाल का अंत हो गया लेकिन अपने पीछे जुल्म और सितम की अंतहीन कहानियां छोड़ गया जो आजाद हिंदुस्तान के लोकतंत्र पर किसी बदनुमा दाग से कम नहीं हैं।
ऐसी रही आपातकाल लगने की कहानी:
25 जून 1975 की रात से 21 मार्च 1977 तक 21 महीने भारत में आपातकाल रहा। तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने भारतीय संविधान की धारा 352 का उपयोग करते हुए आपातकाल की घोषणा की थी।
भारत की राजनीति में आपातकाल को काले अध्याय के रूप में याद किया जाता है। आपातकाल के बाद जब आम चुनाव हुए, तब उसमें कांग्रेस बुरी तरह हार गई और आपातकाल की सिफारिश करने वाली इंदिरा गांधी को शाह आयोग की जांच का सामना करना पड़ा।
अनेक कारणों से आपातकाल को भारतीय लोकतंत्र का सबसे बुरा काल माना जाता है।
इंदिरा गांधी ने 1971 का युद्ध जीतकर और पाकिस्तान का विभाजन कराकर जो सम्मान हासिल किया था, वह मिट्टी में मिल गया। पूरे देश में इंदिरा गांधी के खिलाफ लहर चल पड़ी, जिसका नतीजा इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी को भुगतना पड़ा। अनेक कारणों से आपातकाल काला अध्याय माना जाता है, जिसमें मुख्य कारण ये है।
मीसा कानून
आपातकाल लगते ही पूरे देश में आंतरिक सुरक्षा कानून यानि मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्युरिटी एक्ट (मीसा) लागू कर दिया गया। हजारों लोगों की गिरफ्तारी कर ली गई। इस कानून के तहत गिरफ्तार होने वाले लोगों को कोर्ट में पेश करने की कोई जरूरत नहीं थी, इन्हें जमानत भी नहीं मिल सकती थी।
शाह आयोग की जांच के बाद पता चला कि आपातकाल लगते ही 1 लाख 10 हजार 806 लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिनमें से 34 हजार 988 मीसा कानून के तहत बंद किए गए थे। हजारों लोगों को डीआईआर यानि डिफेंस ऑफ इंडिया रूल के तहत भी पकड़ा गया था। यह कानून अपेक्षाकृत नरम कानून था, इसमें गिरफ्तार व्यक्ति को जमानत का प्रावधान था।
सनक पर चलता रहा पूरा देश
आपातकाल के दौरान पूरी सरकार इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी की सनक पर चलती रही। विद्याचरण शुक्ल को इंद्रकुमार गुजराल की जगह सूचना प्रसारण मंत्री बना दिया गया। विद्याचरण शुक्ल कहते थे कि अब पुरानी वाली आजादी को भूल जाओ, सम्पादकों को न तो सरकार के खिलाफ लिखने की छूट है और न ही सम्पादकीय का स्थान खाली छोड़ने की अनुमति। उन दिनों टीवी न्यूज के नाम पर केवल दूरदर्शन था, इंटरनेट आया ही नहीं था, अखबारों पर सेंसरशिप थी। सरकार के खिलाफ कोई भी खबर अखबार में प्रकाशित नहीं की जा सकती।
सेंसरशिप थोपी गई
आपातकाल में पूरे देश में सेंसरशिप थोपी गई थी। इसके बाद भी देश के कई जाने-माने संपादकों को जेल में बंद कर दिया गया। कुछ अखबारों के मालिक भी जेल में डाल दिए गए। दर्जनों पत्रकारों को नौकरी से हटाने के लिए बाध्य कर लिया गया। कुलदीप नैयर, केआर मलकानी, दिनानाथ मिश्र, विरेन्द्र कपूर और के विक्रमराव जैसे कई जाने-माने पत्रकारों को जेल जाना पड़ा।
फिल्मी दुनिया पर दबाव
आपातकाल में पूरे फिल्म उद्योग पर यह दबाव रहा कि वे सरकार की इच्छा के अनुसार ही कार्य करें। संजय गांधी द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में गायक किशोर कुमार ने जाने से मना कर दिया था, तो किशोर कुमार के गाने आकाशवाणी पर प्रतिबंधित कर दिए गए। फिल्मी गीतकारों से कहा गया कि वे इंदिरा गांधी और सरकार की प्रशंसा में गाने लिखे। अमृत नाहटा की फिल्म किस्सा कुर्सी का पर प्रतिबंध लगा दिया गया और उसके सारे प्रिंट जला दिए गए। गुलजार की फिल्म आंधी पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। धर्मवीर फिल्म का प्रदर्शन रुकवा दिया गया। सूचना प्रसारण मंत्री खुद फिल्मों को देखने और सेंसर करने लगे। कुल मिलाकर पूरे बॉलीवुड में सरकार का दबाव था।
जनसंख्या नियंत्रण और नसबंदी
आपातकाल में यह बात खास तौर पर रेखांकित की गई कि भारत के पिछड़े होने और कम विकास के लिए बढ़ती आबादी जिम्मेदार है। सरकार ने जनसंख्या वृद्धि रोकने के लिए विशेष नसबंदी अभियान चलाए। सभी सरकारी कर्मचारियों, शिक्षकों और पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों को नसबंदी के लक्ष्य दिए गए। लक्ष्य को पूरा करने के लिए जबरदस्ती लोगों को पकड़ा गया और उनकी नसबंदी कर दी गई। यहां तक कि अविवाहितों और बुजुर्गों की भी नसबंदी कर दी गई।
संजय गांधी और मारूति कार
वरिष्ठ पत्रकार कूमी कपूर ने तीन साल पहले एक किताब लिखी थी – ‘द इमरजेंसी, ए पर्सनल हिस्ट्री’। इस किताब में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके पुत्र संजय गांधी की मारूती कार कंपनी के बारे में दिलचस्प बातें लिखी गई है। संजय गांधी ने ब्रिटेन में रोल्स रॉयल्स कंपनी में ट्रेनिंग ली थी और उनकी योजना गरीब वर्ग के लिए सस्ती कार बनाने की थी। 1970 में उन्हें कार बनाने का लाइसेंस मिल गया और हरियाणा के मुख्यमंत्री बंशीलाल ने उनकी मदद के लिए जमीन उपलब्ध कराई। किसानों की जमीने ले-लेकर बेहद कम दाम में वे जमीने मारूति कार को दी गई। इमरजेंसी लगने पर मारूति कार कंपनी की कई सहायक कंपनियों ने सरकार की मदद से जमकर पैसे कमाएं। इनमें से एक थी मारूति टेक्नीकल सर्विसेस और दूसरी थी मारूति हैवी व्हीकल्स। अपने घोटालों की वजह से 1977 में मारूति कंपनी दीवालिया हो गई। बाद में सरकार की मदद से उसे वापस संकट से उबारा गया और जापानी कंपनी सुजुकी की पार्टनरशीप में उसने फिर से अपना उत्पादन शुरू किया।attacknews.in