उज्जैन/मऊ 25 मई । दाल-बाटी जितना राजस्थान में पसन्द किया जाता है, उतना ही उज्जैन-मालवा के इलाक़े में भी पसन्द किया जाता है।
मालवा के दाल-बाटी चूरमा लड्डू और हरी चटनी के साथ खाये जाते हैं। यदि मालवा में जाकर कोई व्यक्ति लड्डू और चूरमा नहीं खाया, तो उसकी मालवा-यात्रा अधूरी ही रह गयी
बाटी चोखा एक ऐसा व्यंजन जिसका नाम सुनते पूर्वांचल के लोगों में खाने की ललक जाग उठती है। इसकी लोकप्रियता व पहुंच का आलम यह है कि यदि इसे दिहाड़ी मजदूर पसंद करता है तो वहीं अमीर व सुविधा सम्पन्न व तथाकथित रईस धनाढ्य भी शौक से बनाना व खाना पसंद करते हैं।
देखा जाए तो बाटी चोखा ही एक ऐसा व्यंजन है जिसके भोज में इसे बनाते समय आयोजक से लेकर आगंतुक तक की सहभागिता शामिल रहती है।
बाटी चोखा के महत्ता का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि पूर्वांचल के लगभग सभी जिलों में गांव गिराव से लेकर शहरों तक बड़े भोज आयोजन के बाद बाटी चोखा का भोज देकर ही आयोजन की पूर्णता मानी जाती है। ऐसे में बाटी-चोखा व्यंजन की उत्पत्ति के सम्बंध में बात करते हैं।
जानकारी के अनुसार बाटी मूलत राजस्थान का पारम्परिक व्यंजन है। इसका इतिहास करीब 1300 वर्ष पुराना है। 8वीं सदी में राजस्थान में बप्पा रावल ने मेवाड़ के सिसोदिया राजवंश की स्थापना की।
उस समय राजपूत सरदार अपने साम्राज्यों का विस्तार कर रहे थे। इसके लिए युद्ध भी होते थे। उस दौरान ही बाटी बनने की शुरुआत हुई।
वस्तुतः युद्ध के समय सहस्रों सैनिकों के लिए भोजन का प्रबन्ध करना चुनौतीपूर्ण कार्य होता था। कई बार सैनिक भूखे-प्यासे ही रह जाते थे। ऐसे ही एक बार एक सैनिक ने सुबह रोटी के लिए आटा गूँथा, लेकिन रोटी बनने से पहले युद्ध की घड़ी आ गयी और सैनिक आटे की लोइयाँ तप्त मरुस्थल में छोड़कर रणभूमि में चले गये। शाम को जब वे लौटे तो लोइयाँ तप्त रेत में दब चुकी थीं। जब उन्हें रेत से बाहर से निकाला तो दिनभर सूर्य और रेत की तपन से वे पूरी तरह सिंक चुकी थी। थककर चूर हो चुके सैनिकों ने उसे खाकर देखा तो वह बहुत स्वादिष्ट लगी। उसे पूरी सेना ने आपस में बाँटकर खाया। बस यहीं इसका अविष्कार हुआ और नाम मिला बाटी।
उसके बाद बाटी युद्ध के दौरान खाया जानेवाला पसन्दीदा भोजन बन गया। अब रोज़ सुबह सैनिक आटे की गोलियाँ बनाकर रेत में दबाकर चले जाते और शाम को लौटकर उन्हें चटनी, अचार और रणभूमि में उपलब्ध ऊँटनी एवं बकरी के दूध से बनी दही के साथ खाते। इस भोजन से उन्हें ऊर्जा भी मिलती और समय भी बचता।
इसके बाद शनैः शनैः यह पकवान पूरे राज्य में प्रसिद्ध हो गया और यह कण्डों पर बनने लगा।
मुग़ल बादशाह अकबर के राजस्थान में आने की वजह से बाटी मुग़ल साम्राज्य तक भी पहुँच गयी।
मुग़ल ख़ानसामे बाटी को बाफकर (उबालकर) बनाने लगे और इसे नाम दिया बाफला। इसके बाद यह पकवान देशभर में प्रसिद्ध हुआ और आज भी है और कई तरीकों से बनाया जाता है।
अब बात करते हैं दाल की। दक्षिण के कुछ व्यापारी मेवाड़ में रहने आये, तो उन्होंने बाटी को दाल के साथ चूरकर खाना शुरू किया। यह जायका प्रसिद्ध हो गया और आज भी दाल-बाटी का गठजोड़ बना हुआ है।
उस दौरान पंचमेर दाल खायी जाती थी। यह पाँच तरह की दाल चना, मूँग, उड़द, तुअर और मसूर से मिलकर बनायी जाती थी। इसमें सरसो के तेल या घी में तेज मसालों का तड़का होता था।
अब चूरमा की बारी आती है। यह मीठा पकवान अनजाने में ही बन गया। दरअसल एक बार मेवाड़ के गुहिलोत कबीले के रसोइये के हाथ से छूटकर बाटियाँ गन्ने के रस में गिर गयीं। इससे बाटी नरम हो गयी और स्वादिष्ट भी। इसके बाद से इसे गन्ने के रस में डुबोकर बनाया जाना लगा। मिश्री, इलायची और ढेर सारा घी भी इसमें डलने लगा।
बाटी को चूरकर बनाने के कारण इसका नाम चूरमा पड़ा। दाल-बाटी जितना राजस्थान में पसन्द किया जाता है, उतना ही उज्जैन-मालवा के इलाक़े में भी पसन्द किया जाता है।
मालवा के दाल-बाटी चूरमा लड्डू और हरी चटनी के साथ खाये जाते हैं। यदि मालवा में जाकर कोई व्यक्ति लड्डू और चूरमा नहीं खाया, तो उसकी मालवा-यात्रा अधूरी ही रह गयी।
मालवा के दाल-बाटी और दाल-बाफले इतने प्रसिद्ध हैं की इन्हें खाने के लिए लोग देश-विदेश से आते हैं। दाल-बाफले के खाने के बाद व्यक्ति आनन्दमयी हो जाता है और पानी पी पीकर नींद के आगोश में चला जाता है।
बाटी चोखा का जन सुर्खियों के अनुसार इतिहास देखने पर भले इसकी उपज राजस्थान का रणक्षेत्र बना। लेकिन आज बाटी चोखा व पूर्वांचल दोनों एक दूसरे के पहचान बन चुके हैं।
स्थिति यह है की बाटी चोखा पूर्वी भारत खासकर पूर्वांचल व बिहार में एक शाही व्यंजन बन चुका है। इसकी उपलब्धता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यह पूर्वांचल के प्राय सभी रेलवे स्टेशन, प्रमुख बाजार, कोर्ट कचहरी, सरकारी दफ्तर, विद्यालय महाविद्यालय इत्यादि के पास ठेला खोमचा व फुटपाथ की दुकानों पर भी नजर आने लगा है।
वही बड़े-बड़े रेस्टोरेंट्स भी बाटी चोखा के नाम से खुलने लगे हैं। खासकर लखनऊ, वाराणसी, प्रयागराज व गोरखपुर जैसे पूर्वांचल के बड़े महानगरों में बाटी चोखा की एक रेस्टोरेंट श्रृंखला चल पड़ी है। इसके बिना पूर्वांचल के जनसामान्य से गणमान्य तक कहीं कोई पार्टी दावत महाभोज पूर्ण नहीं हो पाती है।
खासकर पूर्वांचल में गाजीपुर, बलिया, देवरिया, गोरखपुर, आज़मगढ़, मऊ, जौनपुर, वाराणसी, मिर्ज़ापुर, सोनभद्र से होते हुए बिहार तक दाल-बाटी और चोखा की परम्परा विद्यमान है। पूर्वांचल की बाटी में मसालेदार सत्तू भरा होता है, जिसे लिट्टी कहते हैं। लिट्टी को उबलते पानी में पकाकर घी में छानने की भी परम्परा है, जिसे घाठी कहते हैं। घाठी की परम्परा गोरखपुर अंचल में है।
आलम यह है कि पूर्वांचल में दाल चावल, बाटी चोखा, चटनी, अचार, देसी घी, दही, खीर एक महा व्यंजन का स्वरूप अख्तियार कर चुका है।