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उज्जैन स्थित स्वयंभू श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर को सन् १२३५ ई. में इल्तुत्मिश द्वारा विध्वंस कर दिया गया था आज इसके वैभव से विश्वभर में पहचान हैं attacknews.in

डा सुशील शर्मा

उज्जैन के महाकालेश्वर महादेव की मान्यता भारत के प्रमुख बारह ज्योतिर्लिंगों में है। महाकालेश्वर मंदिर का माहात्म्य विभिन्न पुराणों में विस्तृत रूप से वर्णित है।

महाकवि तुलसीदास से लेकर संस्कृत साहित्य के अनेक प्रसिध्द कवियों ने इस मंदिर का वर्णन किया है। लोक मानस में महाकाल की परम्परा अनादि है। उज्जैन भारत की कालगणना का केंद्र बिन्दु था और महाकाल उज्जैन के अधिपति आदि देव माने जाते हैं।

इतिहास के प्रत्येक युग में-शुंग, कुशाण, सात वाहन, गुप्त, परिहार तथा अपेक्षाकृत आधुनिक मराठा काल में इस मंदिर का निरंतर जीर्णोध्दार होता रहा है। वर्तमान मंदिर का पुनर्निर्माण राणोजी सिंधिया के काल में मालवा के सूबेदार रामचंद्र बाबा शेणवी द्वारा कराया गया था। वर्तमान में भी जीर्णोध्दार एवं सुविधा विस्तार का कार्य हो रहा है।

महाकालेश्वर की प्रतिमा दक्षिणमुखी है। तांत्रिक परम्परा में प्रसिध्द दक्षिण मुखी पूजा का महत्व बारह ज्योतिर्लिंगों में केवल महाकालेश्वर को ही प्राप्त है। ओंकारेश्वर में मंदिर की ऊपरी पीठ पर महाकाल मूर्ति की तरह इस तरह मंदिर में भी ओंकारेश्वर शिव की प्रतिष्ठा है। तीसरे खण्ड में नागचंद्रेश्वर की प्रतिमा के दर्शन केवल नागपंचमी को होते है।

विक्रमादित्य और भोज की महाकाल पूजा के लिए शासकीय सनदें महाकाल मंदिर को प्राप्त होती रही है। वर्तमान में यह मंदिर महाकाल मंदिर समिति के तत्वावधान में संरक्षित है।

महाकालेश्वर मंदिर भारत के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मध्यप्रदेश राज्य के उज्जैन नगर में स्थित, महाकालेश्वर भगवान का प्रमुख मंदिर है।

पुराणों, महाभारत और कालिदास जैसे महाकवियों की रचनाओं में इस मंदिर का मनोहर वर्णन मिलता है। स्वयंभू, भव्य और दक्षिणमुखी होने के कारण महाकालेश्वर महादेव की अत्यन्त पुण्यदायी महत्ता है। इसके दर्शन मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, ऐसी मान्यता है।

महाकवि कालिदास ने मेघदूत में उज्जयिनी की चर्चा करते हुए इस मंदिर की प्रशंसा की है।

१२३५ ई. में इल्तुत्मिश के द्वारा इस प्राचीन मंदिर का विध्वंस किए जाने के बाद से यहां जो भी शासक रहे, उन्होंने इस मंदिर के जीर्णोद्धार और सौन्दर्यीकरण की ओर विशेष ध्यान दिया, इसीलिए मंदिर अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त कर सका है। प्रतिवर्ष और सिंहस्थ के पूर्व इस मंदिर को सुसज्जित किया जाता है।

इतिहास से पता चलता है कि उज्जैन में सन् ११०७ से १७२८ ई. तक यवनों का शासन था। इनके शासनकाल में अवंति की लगभग ४५०० वर्षों में स्थापित हिन्दुओं की प्राचीन धार्मिक परंपराएं प्राय: नष्ट हो चुकी थी। लेकिन १६९० ई. में मराठों ने मालवा क्षेत्र में आक्रमण कर दिया और २९ नवंबर १७२८ को मराठा शासकों ने मालवा क्षेत्र में अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया। इसके बाद उज्जैन का खोया हुआ गौरव पुनः लौटा और सन १७३१ से १८०९ तक यह नगरी मालवा की राजधानी बनी रही। मराठों के शासनकाल में यहाँ दो महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घटीं – पहला, महाकालेश्वर मंदिर का पुनिर्नर्माण और ज्योतिर्लिंग की पुनर्प्रतिष्ठा तथा सिंहस्थ पर्व स्नान की स्थापना, जो एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी। आगे चलकर राजा भोज ने इस मंदिर का विस्तार कराया।

मंदिर एक परकोटे के भीतर स्थित है। गर्भगृह तक पहुँचने के लिए अब कई रास्ते है। इसके ठीक उपर ओंकारेश्वर शिवलिंग स्थापित है।

मंदिर का क्षेत्रफल पहले १०.७७ x १०.७७ वर्गमीटर और ऊंचाई २८.७१ मीटर था अब इसका विस्तार किया जा रहा है ।

महाशिवरात्रि एवं श्रावण मास में हर सोमवार को इस मंदिर में अपार भीड़ होती है। मंदिर से लगा स्वप्रवाहित होने वाला जलस्रोत कोटितीर्थ हैं जिसका स्वप्रवाह प्रशासन ने 90 के दशक में इसलिए बंद कर दिया था कि, यह जल्दी जल्दी भर जाता था और इसे खाली करने के उपकरण उपलब्ध नहीं थे,इस कार्य को स्वयं मैंने देखा है ।

ऐसी मान्यता है कि इल्तुत्मिश ने जब मंदिर को तुड़वाया तो शिवलिंग को इसी कोटितीर्थ में फिकवा दिया था। बाद में इसकी पुनर्प्रतिष्ठा करायी गयी।

इसके बाद सन १९६८ के सिंहस्थ महापर्व के पूर्व मुख्य द्वार का विस्तार कर सुसज्जित कर लिया गया था। इसके अलावा निकासी के लिए एक अन्य द्वार का निर्माण भी कराया गया था। लेकिन दर्शनार्थियों की अपार भीड़ को दृष्टिगत रखते हुए बिड़ला उद्योग समूह के द्वारा १९८० के सिंहस्थ के पूर्व एक विशाल सभा मंडप का निर्माण कराया और अब इसका विस्तार विशाल परिसर के रूप मे किया जा रहा है ।

महाकालेश्वर मंदिर की व्यवस्था के लिए एक प्रशासनिक समिति का गठन किया गया था जो इसकी व्यवस्था का संचालन करती हैं, जिसके निर्देशन में यहाँ की व्यवस्था सुचारु रूप से चल रही है।

90 के दशक में ही इसके ११८ शिखरों पर १६ किलो स्वर्ण की परत चढ़ाई गई थी । अब मंदिर में दान के लिए इंटरनेट सुविधा भी चालू है।

श्री महाकालेश्वर की नगरी उज्जैन का महात्म्य:

वर्तमान उज्जैन नगर विंध्यपर्वतमाला के समीप और पवित्र तथा ऐतिहासिक क्षिप्रा नदी के किनारे समुद्र तल से 1678 फीट की ऊंचाई पर 23°डिग्री.50′ उत्तर देशांश और 75°डिग्री .50′ पूर्वी अक्षांश पर स्थित है।

नगर का तापमान और वातावरण समशीतोष्ण है। यहां की भूमि उपजाऊ है। कालजयी कवि कालिदास और महान रचनाकार बाणभट्ट ने नगर की खूबसूरती को जादुई निरूपति किया है।

कालिदास ने लिखा है कि दुनिया के सारे रत्न उज्जैन में हैं और समुद्रों के पास सिर्फ उनका जल बचा है। उज्जैन नगर और अंचल की प्रमुख बोली मीठी मालवी बोली है। हिंदी भी प्रयोग में है।

उज्जैन इतिहास के अनेक परिवर्तनों का साक्षी है। क्षिप्रा के अंतर में इस पारम्परिक नगर के उत्थान-पतन की निराली और सुस्पष्ट अनुभूतियां अंकित है। क्षिप्रा के घाटों पर जहाँ प्राकृतिक सौन्दर्य की छटा बिखरी पड़ी है, असंख्य लोग आए और गए। रंगों भरा कार्तिक मेला हो या जन-संकुल सिंहस्थ या दिन के नहान, सब कुछ नगर को तीन और से घेरे क्षिप्रा का आकर्षण है।

उज्जैन के दक्षिण-पूर्वी सिरे से नगर में प्रवेश कर क्षिप्रा ने यहां के हर स्थान से अपना अंतरंग संबंध स्थापित किया है। यहां त्रिवेणी पर नवगृह मंदिर है और कुछ ही गणना में व्यस्त है। पास की सड़क आपको चिन्तामणि गणेश पहुंचा देगी। धारा मुड़ गई तो क्या हुआ? ये जाने पहचाने क्षिप्रा के घाट , सुबह-सुबह महाकाल और हरसिध्दि मंदिरों की छाया का स्वागत करते है।

क्षिप्रा जब पूर आती है तो गोपाल मंदिर की देहलीज छू लेती है। दुर्गादास की छत्री के थोड़े ही आगे नदी की धारा नगर के प्राचीन परिसर के आस-पास घूम जाती है। भर्तृहरि गुफा, पीर मछिन्दर और गढकालिका का क्षेत्र पार कर नदी मंगलनाथ पहुंचती है। मंगलनाथ का यह मंदिर सान्दीपनि आश्रम और निकट ही राम-जनार्दन मंदिर के सुंदर दृश्यों को निहारता रहता है। सिध्दवट और काल भैरव की ओर मुडकर क्षिप्रा कालियादेह महल को घेरते हुई चुपचाप उज्जैन से आगे अपनी यात्रा पर बढ जाती है।

कवि हों या संत, भक्त हों या साधु, पर्यटक हों या कलाकार, पग-पग पर मंदिरों से भरपूर क्षिप्रा के मनोरम तट सभी के लिए समान भाव से प्रेरणाम के आधार है।

आज जो नगर उज्जैन नाम से जाना जाता है वह अतीत में अवंतिका, उज्जयिनी, विशाला, प्रतिकल्पा, कुमुदवती, स्वर्णशृंगा, अमरावती आदि अनेक नामों से अभिहित रहा। मानव सभ्यता के प्रारंभ से यह भारत के एक महान तीर्थ-स्थल के रूप में विकसित हुआ। पुण्य सलिला क्षिप्रा के दाहिने तट पर बसे इस नगर को भारत की मोक्षदायक सप्तपुरियों में एक माना गया है।

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