प्रयागराज 27 फरवरी ।अमृत से सिंचित और पितामह ब्रह्मदेव के यज्ञ से पवित्र पतित पावनी गंगा, श्यामल यमुना और अन्त स्वरूप सलिला के रूप में प्रवाहित सरस्वती के संगम क्षेत्र में माघी पूर्णिमा स्नान के साथ ही एक माह का संयम, अहिंसा, श्रद्धा एवं कायाशोधन का कल्पवास भी समाप्त हो गया।
पुराणों और धर्मशास्त्रों में कल्पवास को आत्मा शुद्धि और आध्यात्मिक उन्नति के लिए जरूरी बताया गया है। यह मनुष्य के लिए आध्यात्म की राह का एक पड़ाव है जिसके जरिए स्वनियंत्रण एवं आत्मशुद्धि का प्रयास किया जाता है। हर वर्ष श्रद्धालु एक महीने तक संगम के विस्तीर्ण रेती पर तंबुओं की आध्यात्मिक नगरी में रहकर अल्पाहार, तीन समय गंगा स्नान, ध्यान एवं दान करके कल्पवास करते है।
हांडिया के टेला ग्राम निवासी रमेश चतुर्वेदी संगम लोअर मार्ग पर शिविर में रहकर 20 साल से पत्नी के साथ सेवा का कल्पवास कर रहे हैं। सेवा परमोधर्म : का भाव लेकर लोकतंत्र में धर्मतंत्र की स्थापना के लिए प्रयासरत है। इनका मानना है कि अकेला चना भाड़ नहीं तोड सकता लेकिन किसी को तो आगे बढ़कर प्रयास करना ही होगा।
श्री चतुर्वेदी ने बताया कि संगम क्षेत्र में एक माह तक जो भी आध्यात्मिक ऊर्जा का अनुभव मिलता है, उसका वर्णन नहीं जा किया जा सकता केवल महसूस किया जाता है। यह सौभाग्य अब फिर 11 माह बाद मिल सकेगा भी या नहीं कुछ नहीं कह सकते। यह जरूर कह सकते है कि वह जब जिसे चाहेंगी। किसी भी परिस्थिति में अपने पास बुला ही लेंगी।
उन्होने बताया कि कल्पवास के पहले शिविर के मुहाने पर तुलसी और शालिग्राम की स्थापना कर नित्य पूजा करते हैं। कल्पवासी परिवार की समृद्धि के लिए अपने शिविर के बाहर जौ का बीज अवश्य रोपित करता है। कल्पवास समाप्त होने पर तुलसी को गंगा में प्रवाहित कर देते हैं और शेष को अपने साथ ले जाते हैं।
श्री चतुर्वेदी ने बताया कि भारत की आध्यात्मिक सांस्कृतिकए सामाजिक एवं वैचारिक विविधताओं को एकता के सूत्र में पिरोने वाला माघ मेला भारतीय संस्कृति का द्योतक है। इस मेले में पूरे भारत की संस्कृति की झलक देखने को मिलती है। उन्हाेने बताया कि शनिवार को माघी पूर्णिमा स्नान के साथ एक माह का कल्पवास समाप्त हुआ।
वैदिक शोध एवं सांस्कृतिक प्रतिष्ठान कर्मकाण्ड प्रशिक्षण केन्द्र के पूर्व आचार्य डा आत्माराम गौतम ने बताया कि प्रत्येक वर्ष फरवरी महीने के मध्य में कल्पवास खत्म हो जाता था। माघ अथवा कुंभ एवं अर्द्ध कुंभ मेले में दो कालखंड होते हैं। मकर संक्रांति से माघ शुक्लपक्ष की संक्रांति तक बिहार और झाारखंड के मैथिल ब्राह्मण कल्पवास करते हैं। दूसरे खण्ड पौष पूर्णिमा से माघी पूर्णिमा तक कल्पवास किया जाता है। माघ में कल्पवास ज्यादा पुण्यदायक माना जाता है। इसलिए 90 प्रतिशत से अधिक श्रद्धालु पौष पूर्णिमा से माघी पूर्णिमा तक कल्पवास करते हैं।पर इसबार कल्पवासियों और संतों की तपस्या कुछ अधिक खिंच गया। इसकी वजह यह है कि 37 साल बाद पौष पूर्णिमा जनवरी महीने के अंत में लगी। इसलिए माघ महीना पूरे फरवरी तक रहेगा। बीते कुछ वर्षों में पौष पूर्णिमा 10 जनवरी के आसपास पड़ती थी। मकर संक्रांति 14 अथवा 15 जनवरी को ही रहती है।
आचार्य डा आत्माराम गौतम ने बताया कि ऐसी स्थिति में 20 फरवरी से पहले कल्पवास खत्म हो जाता था। चालू में मकर संक्रांति 14 जनवरी और पौष पूर्णिमा 28 जनवरी को पड़ी। माघ शुक्लपक्ष की संक्रांति 13 फरवरी को थी और माघी पूर्णिमा 27 फरवरी को है, इस तरह लगभग फरवरी महीना तक कल्पवास चला।
कल्पवास का वास्तविक अर्थ है कायाकल्प। यह कायाकल्प शरीर और अन्तःकरण दोनों का होना चाहिए। इसी द्विविध कायाकल्प के लिए पवित्र संगम तट पर जो एक महीने का वास किया जाता है उसे कल्पवास कहा जाता है।
प्रयागराज मे कुम्भ बारहवें वर्ष पड़ता है लेकिन यहाँ प्रतिवर्ष माघ मास मे जब सूर्य मकर राशि मे रहते हैं तब माघ मेला एवं कल्पवास का आयोजन होता है।
मत्स्यपुराण के अनुसार कुम्भ में कल्पवास का अत्यधिक महत्व माना गया है।
आचार्य गौतम ने बताया कि आदिकाल से चली आ रही इस परंपरा के महत्व की चर्चा वेदों से लेकर महाभारत और रामचरितमानस में अलग अलग नामों से मिलती है। बदलते समय के अनुरूप कल्पवास करने वालों के तौर तरीके में कुछ बदलाव जरूर आए हैं लेकिन कल्पवास करने वालों की संख्या में कमी नहीं आई है। आज भी श्रद्धालु भयंकर सर्दी में कम से कम संसाधनों की सहायता लेकर कल्पवास करते हैं।
उन्होने बताया कि कल्पवास के दौरान कल्पवासी को जमीन पर सोना होता है। इस दौरान फलाहार या एक समय निराहार रहने का प्रावधान होता है। कल्पवास करने वाले व्यक्ति को नियम पूर्वक तीन समय गंगा में स्नान और यथासंभव अपने शिविर में भजन कीर्तन प्रवचन या गीता पाठ करना चाहिए।
आचार्य ने बताया कि मत्स्यपुराण में लिखा है कि कल्पवास का अर्थ संगम तट पर निवास कर वेदाध्यन और ध्यान करना। कुम्भ में कल्पवास का अत्यधिक महत्व माना गया है। इस दौरान कल्पवास करने वाले को सदाचारी शांत चित्त वाला और जितेन्द्रीय होना चाहिए। कल्पवासी को तट पर रहते हुए नित्यप्रति तप, हाेम और दान करना चाहिए।
समय के साथ कल्पवास के तौर-तरीकों में कुछ बदलाव भी आए हैं। बुजुर्गों के साथ कल्पवास में मदद करते-करते कई युवाए युवतियां माता.पिता, सास.ससुर को कल्पवास कराने और सेवा में लिप्त रहकर अनजाने में खुद भी कल्पवास का पुण्य पा जाते हैं। आचार्य गौतम ने बताया कि पौष कल्पवास के लिए वैसे तो उम्र की कोई बाध्यता नहीं है लेकिन माना जाता है कि संसारी मोहमाया से मुक्त और जिम्मेदारियों को पूरा कर चुके व्यक्ति को ही कल्पवास करना चाहिए क्योंकि जिम्मेदारियों से बंधे व्यक्ति के लिए आत्मनियंत्रण कठिन माना जाता है।
कुम्भ, अर्द्ध कुम्भ और माघ मेला दुनिया का सबसे बड़ा आध्यात्मिक और सांस्कृतिक समागम है जिसकी दुनिया में कोई मिसाल नहीं मिलती। इसके लिए किसी प्रकार का न/न तो प्रचार किया जाता है और न ही इसमें आने के लिए लोगों से मिन्नतें की जाती हैं। तिथियों के पंचांग की एक तारीख पर करोड़ों लोगों को कुम्भ में आने के निमंत्रण का कार्य करती है।
आचार्य ने बताया कि प्रयागराज मे जब बस्ती नहीं थी, तब संगम के आस-पास घोर जंगल था। जंगल मे अनेक ऋषि-मुनि जप तप करते थे। उन लोगों ने ही गृहस्थों को अपने सान्निध्य मे ज्ञानार्जन एवं पुण्यार्जन करने के लिये अल्पकाल के लिए कल्पवास का विधान बनाया था। इस योजना के अनुसार अनेक धार्मिक गृहस्थ ग्यारह महीने तक अपनी गृहस्थी की व्यवस्था करने के बाद एक महीने के लिए संगम तट पर ऋषियों मुनियों के सान्निध्य मे जप तप साधना आदि के द्वारा पुण्यार्जन करते थे। यही परम्परा आज भी कल्पवास के रूप मे विद्यमान है।
महाभारत में कहा गया है कि एक सौ साल तक बिना अन्न ग्रहण किए तपस्या करने का जो फल मिलता है माघ मास में कल्पवास करने भर से प्राप्त हो जाता है।
कल्पवास की न्यूनतम अवधि एक रात्रि की है। बहुत से श्रद्धालु जीवनभर माघ मास गंगा यमुना और सरस्वती के संगम को समर्पित कर देते हैं। विधान के अनुसार एक रात्रि, तीन रात्रि,तीन महीना, छह महीना छह वर्ष, 12 वर्ष या जीवनभर कल्पवास किया जा सकता है।
डा गौतम ने बताया कि पुराणों में तो यहां तक कहा गया है कि आकाश तथा स्वर्ग में जो देवता हैं वे भूमि पर जन्म लेने की इच्छा रखते हैं। वे चाहते हैं कि दुर्लभ मनुष्य का जन्म पाकर प्रयाग क्षेत्र में कल्पवास करें।