इटावा, 28 सितम्बर । उत्तर प्रदेश में इटावा के जसवंतनगर में सैकडों सालों से आयोजित होने वाली विश्वविख्यात रामलीला वैश्विक महामारी कोरोना संक्रमण की भेंट चढती दिखाई दे रही है।
रामलीला कमेटी के व्यवस्था प्रभारी अजेंद्र सिंह गौर ने रविवार को बताया कि रामलीला कमेटी प्रंबध तंत्र की हुई बैठक मे निर्णय लिया गया है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर घोषित एवं युद्ध प्रदर्शन की प्रधानता वाली रामलीला आयोजन के लिए अगर पूर्व की तरह अनुमति मिलेगी तो आयोजन किया जायेगा अन्यथा औपचारिकता निभाने के लिए रस्म अदायी करने के बजाय रद्द करना अधिक बेहतर होगा।
शासन.प्रशासन की ओर से अनुमति न मिलने के कारण मैदानी रामलीला के मंचन पर संकट के बादल दिखाई दे रहे हैं। रामलीला के आयोजन की शुरुआत होने में अब एक माह से भी कम समय बचा है । इसकी अभी तक ना तो इसके लिए कोई तैयारी शुरू हुई है लेकिन एक रामलीला समिति के सदस्यो ने अपनी बैठक मे तय किया है कि अगर पूर्व की भंति रामलीला आयोजन की अनुमति मिलेगी तो ही करना संभव होगा अन्यथा केवल औपचारिकता का कोई उद्देश्य नहीं है।
श्री गौर ने बताया कि माॅरीशस, त्रिनिदाद, थाईलैंड, इंडोनेशिया जैसे देशों के रामलीला प्रेमी जसवंतनगर शैली की रामलीला के बड़े मुरीद हैं। यहां लीलाओं का प्रदर्शन अपनी विशेष शैली के अनुरूप किया जाता है यहां के पात्रों की पोशाकों से लेकर युद्ध प्रदर्शन में प्रयुक्त किए जाने वाले असली ढाल, तलवारों, बरछी, भालों, आसमानी वाणों आदि का आकर्षण देखने के लिए दर्शकों को खींच लाता है।
कुछ वर्षों पूर्व जब दक्षिणी अमेरिकी महाद्वीप के कैरेबियन देश त्रिनिदाद , क्रिकेट की शब्दावली में वेस्टइंडीज का एक देश से रामलीला पर शोध कर रही डा इंद्राणी रामप्रसाद जब यहां का रामलीला का प्रदर्शन देखने जसवंतनगर आई तो वह यह देखकर आश्चर्यचकित रह गई की रामलीला का प्रदर्शन इस तरह भी हो सकता है। बाद में दुनिया की 400 रामलीलाओं का अध्ययन करने के बाद उन्होंने जब अपनी थीसिस लिखी तो उसमें जसवंतनगर की मैदानी रामलीलाओं को उन्होंने दुनिया की सबसे बेहतरीन रामलीला बताते हुए विभिन्न रामलीलाओं का वर्णन किया ।
डा इंद्राणी रामप्रसाद को त्रिनिनाद विश्वविद्यालय से रामलीला के प्रदर्शन विषय पर डाक्टरेट की उपाधि प्रदान की गई। उन्होंने इसके बाद पूरी दुनिया के विभिन्न देशों में हिंदू समुदाय के लोगों तक इस रामलीला की खूबियों और आकर्षण को पहुंचाने का काम किया । इसके बाद ही लोग समझ सके कि जसवंतनगर की रामलीला दुनिया में बेजोड़ है।
दुनिया भर मे जहां-जहां रामलीलाएं होती है, इस तरह की रामलीला कहीं भर भी नही होती है। इसी कारण साल 2010 मे यूनेस्को की ओर से रामलीलाओ के बारे जारी की गई रिर्पोट मे भी इस रामलीला को जगह दी जा चुकी है। 164 साल से अधिक का वक्त बीत चुकी इस रामलीला का आयोजन दक्षिण भारतीय तर्ज पर मुखोटो को लगाकर खुले मैदान मे किया जाता है । त्रिनिदाद की शोधार्थी इंद्राणी रामप्रसाद करीब 400 से अधिक रामलीलाओ पर शोध कर चुकी हैं लेकिन उनको जसवंतनगर जैसी होने वाली रामलीला कही पर भी देखने को नही मिली है।
यहाँ की रामलीला का इतिहास करीब 164 वर्ष पुराना है और ये खुले मैदान में होती है। यहाँ रावण की आरती उतारी जाती है और उसकी पूजा होती है। हालाँकि ये परंपरा दक्षिण भारत की है लेकिन फिर भी उत्तर भारत के कस्बे जसवंतनगर ने इसे खुद में क्यों समेटा हुआ है ये अपने आप में ही एक अनोखा प्रश्न है। जानकार बताते है कि रामलीला की शुरुआत यहाँ 1855 मे हुई थी लेकिन 1857 के गदर ने इसको रोका फिर 1859 से यह लगातार जारी है।
विश्व धरोहर में शामिल जमीनी रामलीला के पात्रों से लेकर उनकी वेशभूषा तक सभी के लिए आकर्षक का केन्द्र होती है । भाव भंगिमाओ के साथ प्रदर्शित होने वाली देश की एकमात्र अनूठी रामलीला में कलाकारों द्वारा पहने जाने वाले मुखौटे प्राचीन तथा देखने में अत्यंत आकर्षक प्रतीत होते हैं । इनमें रावण का मुखौटा सबसे बड़ा होता है तथा उसमें दस सिर जुड़े होते हैं।
ये मुखौटे विभिन्न धातुओं के बने होते हैं तथा इन्हें लगा कर पात्र मैदान में युद्ध लीला का प्रदर्शन करते है । इनकी विशेष बात यह है कि इन्हें धातुओं से निर्मित किया जाता है तथा इनको प्राकृतिक रंगों से रंगा गया है। सैकड़ों वर्षों बाद भी इनकी चमक और इनका आकर्षण लोगों को आकर्षित करता है ।