कुम्भ क्षेत्र (हरिद्वार) 02 अप्रैल । उत्तराखंड की कुम्भ नगरी हरिद्वार के विश्वविख्यात हर की पौड़ी के पास कुशाघाट के आसपास पुराने घरों में पंडों की अलमारियों में करीने से रखे गए सैकड़ों साल पुरानी बहीखातों में दर्ज वंशावली या सूचना क्रांति के आधुनिक टूल गूगल को भी मात देते हैं।
हरिद्वार में रहने वाले लगभग दो हजार पंडों के पास कई पीढ़ियों से अपने यजमानो के वंशवृक्ष मौजूद हैं।
अपने मृतक परिजनों के क्रियाकर्म करने जो भी लोग यहां आते हैं अपने पुरोहितों की बही में अपने पूर्वजों के साथ अपना नाम भी दर्ज करवा लेते हैं।
यह परंपरा तब से चल रही है जब से कागज अस्तित्व में आए।
उससे पहले भोजपत्र पर भी वंशवृक्ष के लिपिबद्ध होने का जिक्र है।
पर वह अब लुप्त से हो गए हैं।
यहां के प्रतिष्ठित पुरोहित पंडित कौशल सिखौला के अनुसार,“यहां के पंडे हरिद्वार के ही मूल निवासी हैं।
वह बताते हैं कि कागज के पहले उनके पूर्वज पंडो को अपने लाखों यजमानो के नाम वंश, व क्षेत्र तक जुबानी याद रखते थे।
जिन्हें वह अपने बाद अपनी आगामी पीढी को बता देते थे।
” यहां के पंडो में यजमान, गांव, जिला तथा राज्यों के आधार पर बनते हैं।
किसी भी पंडे के पास जाने पर वह यथासंभव जानकारी दे देते हैं कि उनके वंश के कौन-कौन हैं।
कई बार किसी व्यक्ति की मौत पर उसकी संपत्ति संबंधी परिवारों के आपसी विवादों में वंशावलीयों का निर्णय उन्हीं बहीयों की मदद से होता है।
इन बहियों को देखने बाकायदा अदालत के लोग यहां आते हैं, जिसके अनुसार अदालतें अपना निर्णय करती है।
इन बही खातों में पुराने राजा महाराजाओं से लेकर आम आदमी की वंशावली दर्ज है।
पंडित कौशल सिखौला का कहना है कि कंप्यूटर युग में भी इन प्राचीन बहीखातों की उपयोगिता कम नहीं हुई है।
क्योंकि इन बहीखातों में उनके पूर्वजों की हस्तलिखित बातें और हस्ताक्षर दर्ज होते हैं, जिनकी महत्ता किसी भी व्यक्ति के लिए कंप्यूटर के निर्जीव प्रिंट आउट से निश्चित ही अधिक होती है।
उनका कहना है कि जहां उनकी आने वाली पीढ़ियां पढ़ लिखकर अन्य व्यवसाय में जा रही है वहीं कुछ पढ़े-लिखे युवा व सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी कर्मचारी अपनी परंपरागत गद्दी संभाल रहे हैं।