नरेन्द्र मोदी के अभियान 2024 के लिए नड्डा भस्मासुर साबित होंगे, खलनायक साबित होंगे, कमजोर कड़ी साबित होंगे? नड्डा के अंहकार, जातिवादी मानसिकताएं, अति महत्वाकांक्षाएं अब मोदी और भाजपा के लिए भारी नुकसान के कारण बन रहीं हैं। दिल्ली नगर निगम और हिमाचल में भाजपा की हार को नड्डा की कारस्तानी मानी जा रही है।
भाजपा के वर्तमान केन्द्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के संबंध में दो उदाहरणों को देखिये। पहला उदाहरण यह है, जब कद छोटा होता है, अनुभव छोटा होता है, निम्न और सीमित होता है, प्रबंधन कौशल औसत के नीचे होता है तथा प्रतिद्वंदी-प्रतिस्पर्द्धा में फिसड्डी होता है तब कोई करिशमा और चमत्कार करने या फिर कुशल नेतृत्व देने की उम्मीद ही नहीं बनती है।
दूसरा उदाहरण यह है, एक बार जंगल का राजा एक बंदर को चुन लिया गया। जंगल के परमपरागत राजा शेर को यह स्वीकार नहीं हुआ, स्वीकार भी कैसे होता,यह उसकी शक्ति के खिलाफ थी और उसके लिए अपमानजनक बात थी। उसने बंदर को राजा चुनने में मुख्य भूमिका निभाने वाले शियार के बच्चे को उठा लिया। शियार शिकायत लेकर राजा बंदर के पास पहुंचा, बंदर बोला मैं कुछ कर रहा हूं, बंदर की शक्ति शेर से टकराने की तो नहीं थी, वह कैसे टकराता, उसने एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर दौड लगाने की भूमिका निभानी शुरू कर दी, यह देख कर शियार बोला, आप यहां उछल-कूद कर रहे हैं वहां शेर हमारे बच्चे को खा रहा होगा, इस पर शियार बोला कि हम उछल-कूद कर प्रयास तो कर रहे हैं अब शेर से मैं कैसे टकरा सकता हूं?
इन दोनों उदाहरणों का साफ संदेश है कि अक्षम और अनुभवहीन व्यक्ति को कोई बड़ी जिम्मेदारी मिल जाती है तो फिर वह उस जिम्मेदारी के साथ न्याय तो कर ही नहीं सकता और इसके अलावा जिम्मेदारी से संबंधित कोई प्रेरणादायी उदाहरण प्रस्तुत कर सकता है, प्रतिपर्द्धी को पराजित करने की बात दूर रही।
सत्ताधरी पार्टी का केन्द्रीय अध्यक्ष होना एक बहुत बडी बात है और बहुत बड़ी उपलब्धि है। पर नड्डा अपनी जिम्मेदारी के साथ न्याय नहीं कर पा रहे हैं, नड्डा की घोर स्वच्छंता और जातिवादी मानसिकताएं भाजपा के उपर हावी हो रही हैं और भाजपा के लिए नुकसानकुन भी साबित हो रही हैं। दिल्ली के नगर निगम चुनाव में अरविन्द केजरीवाल की जीत और हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की जीत की कसौटी पर नड्डा खलनायक के तौर पर ही सामने हैं।
नड्डा अक्षम और अनुभवहीन क्यों और कैसे हैं? नड्डा हिमाचल प्रदेश जैसे छोटे राज्य की राजनीति के अनुभव रखते थे। छोटे प्रदेश की राजनीति और बड़े प्रदेश की राजनीति का अनुभव में जमीन-आसमान का अंतर होता है, विशेषकर केन्द्रीय राजनीति की कसौटी पर छोटे राज्य की राजनीति कोई उल्लेखनीय नहीं होती है। छोटे प्रदेश की राजनीति में भी नड्डा की राजनीति कोई बेहद ईमानदार, कर्मठ और प्रेरणादायी नहीं रही है। उनकी राजनीति ऐसी नहीं रही थी कि उन्हें केन्द्रीय राजनीति में इस तरह के प्रभावशाली और सर्वश्रेष्ठ पद को सुशोभित करने का पात्र समझ लिया जाये। ये हिमाचल प्रदेश में मंत्री थे। मंत्री के रूप में इनकी छवि कर्मठ और बेहद ईमानदार की नहीं रही थी। जब ये मंत्री थे तभी हिमाचल प्रदेश में भाजपा सत्ता में कमजोर हुई थी।
केन्द्रीय मंत्री के तौर पर इनका कामकाज औसत ही था। ये चरणवंदना संस्कृति के राजनीतिज्ञ हैं, इन्होंने चरणवंदना की शक्ति पहचानी। ये कभी हिमाचल प्रदेश का मुख्यमंत्री बनना चाहते थे। इनके लिए अवसर था। धूमल विधान सभा चुनाव हार चुके थे। लेकिन ये मुख्यमंत्री नहीं बन सके। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर बन गये।
इन्होंने यह खबर उड़ायी थी कि ब्राम्हण होने के कारण उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया। भाजपा के लोग कहते हैं कि इन्होंने हिमाचल प्रदेश में भाजपा के ठाकुरों की राजनीतिक शक्ति को जमींदोज करने की कसमें खायी थी। जयराम ठाकुर की हार के बाद नड्डा के प्रतिज्ञा पूरी हो गयी।
हिमाचल प्रदेश में भाजपा की हार के लिए नड्डा को ही भस्मासुर और खलनायक माना जा रहा है। नड्डा पर सरेआम आरोप लग रहे हैं। हिमाचल प्रदेश के भाजपा नेताओं से पूछ लीजिये आपको पता लग जायेगा, नड्डा के खिलाफ भाजपा नेताओं की भस्मासुर वाली प्रतिक्रिया आपको सुनने के लिए मिल जायेगी। नड्डा ही नहीं बल्कि अनुराग ठाकुर भी भस्मासुर की श्रेणी में थे।
आपको याद होना चाहिए कि हिमाचल प्रदेश में भाजपा के कमजोर होने और सत्ता से बाहर होने के खतरे का अहसास काफी पहले से किया जा रहा था। मीडिया और भाजपा में हमेशा इस बात को लेकर चर्चा हो रही थी। जयराम ठाकुर ईमानदार मुख्यमंत्री थे। लेकिन नड्डा के हस्तक्षेप और विरोधियों के संरक्षण देने के कारण लाचार थे। वे गुटबाजी पर लगाम लगा नहीं पा रहे थे। गुटबाजी पर लगाम लगाने की जिम्मेदारी केन्द्रीय नेतृत्व को थी। लेकिन केन्द्रीय नेतृत्व ने समय पर विरोधियों को सबक सिखाने या फिर उनकी शिकायतों को दूर करने की जिम्मेदारी नहीं निभायी। इसका दुष्परिणाम क्या हुआ, यह भी देख लीजिये। कोई एक नहीं बल्कि 22 बागी चुनाव में खडे हो गये। ये बागी भाजपा को हराने में बड़ी भूमिकाएं निभायी। बागियों पर नियंत्रण करने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को आगे आना पड़ा था। तब तक बहुत देर हो चुकी थी। नरेन्द्र मोदी ने एक बागी को बैठने के लिए खुद कॉल किया था। यह पहला अवसर था जब प्रधानमंत्री ने किसी बागी को बैठने के लिए खुद कॉल किया था, इसके पहले नरेन्द्र मोदी बड़े से बड़े बागी को मनाने की परवाह तक नहीं की थी। वह बागी चुनाव में खड़ा रहा, इतना ही नहीं बल्कि उसने नड्डा के खिलाफ भी बहुत वीभत्स भड़ास निकाली थी।
हिमाचल प्रदेश में चुनाव में मंत्रियों को हराने की परम्परा है, इसलिए जयराम ठाकुर सभी मंत्रियों का टिकट काटना चाहते थे। लेकिन केन्द्रीय नेतृत्व ने बात नहीं मानी। जयराम ठाकुर मंत्रिमंडल के एक मंत्री को छोड़कर सभी मंत्री हार गये।
दिल्ली नगर निगम की हार के लिए भी नड्डा का ब्राम्हणवादी दृष्टिकोण रहा है। दिल्ली नगर निगम चुनाव का टिकट फाइनल नड्डा ने ही किया था। नड्डा ने दिल्ली प्रदेश के कुचर्चित संगठन महामंत्री सिद्धार्टन के साथ मिल कर टिकट बांटा था। कोई एक दो नहीं बल्कि लगभग पचास टिकट ब्राम्हण जाति को दिया था। 250 में 50 टिकट ब्राम्हणों को मिला था। यानि कि भाजपा का हर पाचवां उम्मीदवार ब्राम्हण था। इसका संकेत गलत गया। खासकर पिछडी और कमजोर राजनीति में यह प्रश्न काफी मुखर था। इस प्रश्न का लाभ अरविंद केजरीवाल खूब उठाया। भाजपा का परमपरागत वोट भी भाजपा के ब्राम्हणवाद के खिलाफ चला गया। दिल्ली में हार पर प्रदेश अध्यक्ष आदेश गुप्ता का इस्तीफा तो ले लिया गया पर दिल्ली और हिमाचल प्रदेश में हार पर नड्डा नैतिक जिम्मेदारी लेकर इस्तीफा क्यों नहीं दिया ? यह प्रश्न आज भाजपा के समर्पित कार्यकर्ताओं में खूब घूम रहा है।
उत्तराखंड में भी ब्राम्हण बनाम ठाकुर की राजनीति में भाजपा का नाश करने की पूरी कोशिश की गयी। ठाकुर जाति के बर्चस्व को समाप्त कर ब्राम्हण राजनीति स्थापित करने की पूरी कोशिश की गयी। पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत और फिर तीरथ सिंह रावत की हवा खराब की गयी। लेकिन कांग्रेस अपनी करतूतों के कारण हार गयी। अब पुस्कर सिंह धामी के खिलाफ भाजपा के केन्द्रीय कार्यालय से अनोली-बालोनी ब्राम्हण लॉबी सक्रिय है। उस बा्रम्हण लॉबी व नेता को नड्डा का संरक्षण और समर्थन भी प्राप्त है। भाजपाई और गैर भाजपाई ब्राम्हण पत्रकार भी उत्तराखंड में ठाकुरों की राजनीति को जमींदोज कर ब्राम्हण मुख्यमंत्री बनवाने के लिए अति सक्रिय है। यह सब मीडिया के लोगों को मालूम है।
भाजपा का केन्द्रीय कार्यालय स्वच्छंदता का प्रतीक बन गया है और जातिवाद का ही नहीं बल्कि मोदी विरोधियो का अड्डा भी बन गया है। विष कन्याओं, प्रोफेशनरों और जातिवादी तथा मोदी विरोधियों को भाजपा केन्द्रीय कार्यालय में विशेष सुविधाएं मिलती है। मीडिया विभाग में जाकर कोई इसका अध्ययण कर सकता है। गुजरात में नड्डा की कारस्तानी और जातिवादी हस्तक्षेप इसलिए नहीं चल सका कि नरेन्द्र मोदी और अमित शाह खुद चुनाव प्रबंधन की जिम्मेदारी संभाली थी।
भाजपा कभी मध्य प्र्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ और महाराष्ट में हार चुकी थी। हरियाणा में भी भाजपा को बहुमत नहीं मिला था। अभी मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ और राजस्थान में विधान सभा चुनाव होने वाले हैं। फिर 2024 में लोकसभा चुनाव होने वाले हैं। इसलिए नरेन्द्र मोदी खुशफहमी में नहीं रहें, किसी संगठन के भरोसे नहीं रहें। अन्यथा 2024 में बहुमत से वंचित भी हो सकते हैं। नड्डा निसंकोच भाजपा और मोदी के लिए भस्मासुर और खलनायक साबित हो सकते हैं।
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विष्णुगुप्त
— VISHNU GUPT
COLUMNIST
NEW DELHI