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पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा के लोकसभा चुनाव में सबसे बुरे दिन, अस्तित्व बचाने के साथ- साथ नेतृत्व का भी संकट attacknews.in

कोलकाता, 20 मार्च । कभी पश्चिम बंगाल में अजेय ताकत माने जाने वाले माकपा नीत वाम मोर्चे के लिए इस बार लोकसभा चुनाव सबसे मुश्किल राजनीतिक अग्निपरीक्षा है जब उसे अपने राजनीतिक एवं चुनावी अस्तित्व जताना होगा।

वाम मोर्चा ने 1977 से लगातार 34 साल तक राज्य में हुकूमत की, लेकिन अब इसका जनाधार तेजी से सिकुड़ रहा है। वह नेतृत्व का संकट का सामना कर रहा है और उसके कार्यकर्ता सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस में, यहां तक कि भाजपा में जा रहे हैं। भगवा दल उसकी जगह लेता जा रहा है और उसे अपनी जमीन बचाने के लिए जद्दोजेहद करना पड़ रहा है।

राज्य में तृणमूल कांग्रेस, भाजपा, वाम मोर्चा और कांग्रेस के बीच चार तरफा मुकाबला होने की संभावना है। यहां चुनावी रण में वाम मोर्चा अकेले ताल ठोकेंगा।

माकपा पोलित ब्यूरो के सदस्य हन्नान मुल्ला ने  कहा, ‘‘ यह चुनाव वाकई में बंगाल में हमारे के लिए सबसे मुश्किल चुनावी लड़ाइयों में से एक है। हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी हम राज्य की सियासत में ऐसी स्थिति में पहुंच जाएंगे। हमें उम्मीद है कि आने वाले दिनों में चीजें बदलेंगी जब लोगों को इस बात का एहसास होगा कि तृणमूल कांग्रेस का विकल्प सिर्फ वाम दल ही दे सकता है न कि भाजपा।’’

माकपा के एक अन्य वरिष्ठ नेता ने कहा, ‘‘यह हमारे राजनीतिक और चुनावी अस्तित्व को साबित करने और भाजपा के खिलाफ अपनी जमीन बचाए रखने की लड़ाई है। यह सच है कि आप वाम को खत्म नहीं कर सकते हैं लेकिन संसदीय राजनीति में आपकी बात सुनी जाए इसके लिए आपको चुनावी तौर पर अहम होने की जरूरत है।’’

वाम मोर्चा में माकपा के अलावा 10 पार्टियां शामिल हैं। इनमें ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक (एआईएफबी), रिवोलुशनरी सोशलिस्ट पार्टी (आरएसपी) और भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (भाकपा) शामिल हैं जो इसके अहम घटक हैं जो राज्य में लोकसभा चुनाव लड़ते हैं।

माकपा और वाम मोर्चा ने बंगाल की 42 लोकसभा सीटों में से 2014 के चुनाव में केवल दो सीटों पर ही जीत हासिल की थी।

वाम मोर्चे ने कांग्रेस के साथ सीट बंटवारे की बातचीत की थी लेकिन यह आखिरी क्षण में विफल हो गई। दोनों पक्षों ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया है।

माकपा की केंद्रीय समिति के सदस्य सुजान चक्रवर्ती ने कहा, ‘‘ अगर हम सीट बंटवारे पर समझौता कर पाते तो कई सीटों पर नतीजे कुछ और होते। हम तृणमूल कांग्रेस का अधिक विश्वसनीय धर्मनिरपेक्ष विकल्प हो सकते थे।’’

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