मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग की 2019 की पूरी परीक्षा को निरस्त करने का फैसला गलत था. यह पूरी तरह से औचित्यहीन;मध्यप्रदेश हाईकोर्ट नेअब नये तरीके से परीक्षा कराने को कहा attacknews.in

जबलपुर 15 दिसम्बर।मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने पीएससी 2019 की परीक्षा से जुड़े मामले में बड़ा फैसला दिया है. हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग (MP PSC EXAM 2019) की 2019 की पूरी परीक्षा को निरस्त करने का फैसला गलत था. यह पूरी तरह से औचित्यहीन है.


हाईकोर्ट ने एमपी पीएससी से कहा है कि परीक्षा में आरक्षित वर्ग के उन उम्मीदवारों के लिए विशेष मुख्य परीक्षा आयोजित करें, जिन्होंने अनारक्षित वर्ग के कट-ऑफ से अधिक अंक प्राप्त किए हैं.

6 माह के भीतर पूरी करें परीक्षा और साक्षात्कार की प्रक्रिया

एमपी हाईकोर्ट ने अपने आदेश में इस बात का भी जिक्र किया है कि भर्ती नियम 2015 से मुख्य और विशेष मुख्य परीक्षा के परिणाम के आधार पर इन उम्मीदवारों के साक्षात्कार के लिए नई सूची तैयार करें.

हाईकोर्ट ने पीएससी को कहा कि इसके लिए वही प्रक्रिया अपनाएं जो कि पूर्व की परीक्षाओं में अपनाई गई है.

हाईकोर्ट की जस्टिस नंदिता दुबे की एकलपीठ ने निर्देश दिए कि विशेष मुख्य परीक्षा व साक्षात्कार की पूरी प्रक्रिया 6 माह के भीतर पूरी करें.

इसके साथ ही हाईकोर्ट ने पीएससी के 7 अप्रैल 2022 को दिए उस आदेश को रद्द कर दिया जिसके तहत पीएससी 2019 की मुख्य परीक्षा के परिणाम को निरस्त कर नए सिरे से परीक्षा कराने कहा था.

कोर्ट के इस फैसले से अनारक्षित वर्ग के सैकड़ों छात्रों को राहत मिली है.

हाईकोर्ट ने याची की अपील को माना सही

बता दें कि जबलपुर निवासी हर्षित जैन, सागर निवासी जय प्रताप भदौरिया समेत, उमरिया, कटनी, नरसिंहपुर, छिंदवाड़ा, पन्ना और प्रदेश के अन्य जिलों के 102 उम्मीदवारों ने याचिका दायर कर पीएससी के फैसले को गैर कानूनी करार दिया था।

याचिकाकर्ताओं की अपील पर हाईकोर्ट ने पीएससी परीक्षा 2019 के प्रारंभिक व मुख्य परीक्षा के परिणाम निरस्त कर दिए थे.

याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता नमन नागरथ ने दलील दी थी कि पीएससी के उक्त आदेश से हजारों उम्मीदवारों का भविष्य खतरे पड़ गया है.

उन्होंने बताया कि जिन अभ्यर्थियों ने प्रारंभिक और मुख्य परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद साक्षात्कार के लिए तैयारी की है,अब उन्हें फिर से परीक्षा देनी होगी, जो कि पूरी तरह अनुचित है.

याची ने कोर्ट से मांग की थी कि 2019 की परीक्षा के बाद पूरी चयन प्रक्रिया निरस्त करने की बजाय, कुछ उम्मीदवारों के लिए विशेष परीक्षा आयोजित की जाए.

पूरी परीक्षा को रद्द करना जरूरी नहीं

याचिकाकर्ताओं की इस अपील पर हाईकोर्ट ने कहा कि नए सिरे से मुख्य परीक्षा आयोजित करने से बड़े स्तर पर आर्थिक और सार्वजनिक तौर पर नुकसान होगा. इससे बिना कोई गलती के उन उम्मीदवारों के एक बड़े वर्ग के साथ अन्याय होगा जो मुख्य परीक्षा उत्तीर्ण कर साक्षात्कार के लिए चयनित हुए हैं. यानि पूरी परीक्षा को निरस्त करना सही नहीं होगा.

हस्तक्षेपकर्ताओं की ओर से अधिवक्ता रामेश्वर प्रसाद सिंह व विनायक प्रसाद शाह ने बताया कि पूर्व में हाईकोर्ट में एक याचिका दायर कर कहा गया था कि आरक्षित वर्ग के उन उममीदवारों को सामान्य श्रेणी में स्थान मिलना चाहिए जिनके अंक कट-ऑफ से ज्यादा आए हैं.

उन्होंने कहा कि एकलपीठ का फैसला संविधान के प्रावधानों पर प्रश्नचिन्ह है, इसलिए इस फैसले के खिलाफ डिवीजन बेंच के समक्ष अपील दायर की जाएगी.

बता दें कि इससे पहले भी परीक्षा के आयोजन में अनियमितताओं की वजह से साल 2011, 2013 व 2015 में कोर्ट से परीक्षा की पात्रता पाये उम्मीदवारों के लिए विशेष परीक्षा आयोजित हुईं थी.

मुस्लिम निकाह एक अनुबंध है जिसके कई अर्थ हैं और यह हिंदू विवाह की तरह संस्कार नहीं है: कर्नाटक उच्च न्यायालय का फैसला- मुस्लिम पूर्व पत्नी को गुजारा भत्ता लेने का अधिकार है attacknews.in

बेंगलुरु, 20 अक्टूबर । कर्नाटक उच्च न्यायालय ने कहा है कि मुस्लिम निकाह एक अनुबंध है, जिसके कई अर्थ हैं, यह हिंदू विवाह की तरह कोई संस्कार नहीं और इसके विघटन से उत्पन्न कुछ अधिकारों एवं दायित्वों से पीछे नहीं हटा जा सकता।

यह मामला बेंगलुरु के भुवनेश्वरी नगर में एजाजुर रहमान (52) की एक याचिका से संबंधित है, जिसमें 12 अगस्त, 2011 को बेंगलुरु में एक पारिवारिक अदालत के प्रथम अतिरिक्त प्रिंसिपल न्यायाधीश का आदेश रद्द करने का अनुरोध किया गया था। रहमान ने अपनी पत्नी सायरा बानो को पांच हजार रुपए के ‘मेहर’ के साथ विवाह करने के कुछ महीने बाद ही ‘तलाक’ शब्द कहकर 25 नवंबर, 1991 को तलाक दे दिया था।

इस तलाक के बाद रहमान ने दूसरी शादी की, जिससे वह एक बच्चे का पिता बन गया। बानो ने इसके बाद गुजारा भत्ता लेने के लिए 24 अगस्त, 2002 में एक दीवानी मुकदमा दाखिल किया था।

पारिवारिक अदालत ने आदेश दिया था कि वादी वाद की तारीख से अपनी मृत्यु तक या अपना पुनर्विवाह होने तक या प्रतिवादी की मृत्यु तक 3,000 रुपये की दर से मासिक गुजारा भत्ते की हकदार है।

न्यायमूर्ति कृष्णा एस दीक्षित ने 25,000 रुपए के जुर्माने के साथ याचिका खारिज करते हुए सात अक्टूबर को अपने आदेश में कहा, ‘‘निकाह एक अनुबंध है जिसके कई अर्थ हैं, यह हिंदू विवाह की तरह एक संस्कार नहीं है। यह बात सत्य है।’’

न्यायमूर्ति दीक्षित ने विस्तार से कहा कि मुस्लिम निकाह कोई संस्कार नहीं है और यह इसके समाप्त होने के बाद पैदा हुए कुछ दायित्वों एवं अधिकारों से भाग नहीं सकता।

पीठ ने कहा, ‘‘तलाक के जरिए विवाह बंधन टूट जाने के बाद भी दरअसल पक्षकारों के सभी दायित्वों एवं कर्तव्य पूरी तरह समाप्त नहीं होते हैं।’’

उसने कहा कि मुसलमानों में एक अनुबंध के साथ निकाह होता है और यह अंतत: वह स्थिति प्राप्त कर लेता है, जो आमतौर पर अन्य समुदायों में होती है।

अदालत ने कहा, ‘‘यही स्थिति कुछ न्यायोचित दायित्वों को जन्म देती है। वे अनुबंध से पैदा हुए दायित्व हैं।’’

अदालत ने कहा कि कानून के तहत नए दायित्व भी उत्पन्न हो सकते हैं। उनमें से एक दायित्व व्यक्ति का अपनी पूर्व पत्नी को गुजारा भत्ता देने का परिस्थितिजन्य कर्तव्य है जो तलाक के कारण अपना भरण-पोषण करने में अक्षम हो गई है।

न्यायमूर्ति दीक्षित ने कुरान में सूरह अल बकराह की आयतों का हवाला देते हुए कहा कि अपनी बेसहारा पूर्व पत्नी को गुजारा-भत्ता देना एक सच्चे मुसलमान का नैतिक और धार्मिक कर्तव्य है।

अदालत ने कहा कि एक मुस्लिम पूर्व पत्नी को कुछ शर्तें पूरी करने की स्थिति में गुजारा भत्ता लेने का अधिकार है और यह निर्विवाद है।

न्यायमूर्ति दीक्षित ने कहा कि ‘मेहर’ अपर्याप्त रूप से तय किया गया है और वधु पक्ष के पास सौदेबाजी की समान शक्ति नहीं होती।