नईदिल्ली 6 सितम्बर। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय खंडपीठ ने समलैंगिकता को अपराध बतानेवाली धारा को खत्म कर दिया है। जिसके बाद अब समलैंगिकता अपराध नहीं माना जाएगा। कोर्ट ने जुलाई माह में इस मुद्दे पर फैसला सुरक्षित रख लिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए धारा 377 को बहाल कर दिया था। हाईकोर्ट ने 2009 में नाज फाउंडेशन की याचिका पर धारा 377 को हल्का कर दिया था।
सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले के खिलाफ कई समीक्षा याचिकाएं दायर की गईं, जिन्हें बाद में रिट याचिकाओं में तब्दील कर दिया गया और मामला संविधान पीठ को सौंप दिया गया था।
पांच जजों की संविधान पीठ यह तय करेगी कि सहमति से दो व्यस्कों द्वारा बनाए गए यौन संबंध अपराध के दायरे में आएंगे या नहीं। संविधान पीठ में मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंटन नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल हैं।
शुरुआत में संविधान पीठ ने कहा था कि वो जांच करेंगे कि क्या जीने के मौलिक अधिकार में ‘यौन आजादी का अधिकार’ शामिल है, विशेष रूप से 9-न्यायाधीश बेंच के फैसले के बाद कि ‘निजता का अधिकार’ एक मौलिक अधिकार है।
इससे पहले 17 जुलाई को चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान ने धारा-377 की वैधता को चुनौती वाली याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रखते हुए यह साफ किया था कि इस कानून को पूरी तरह से निरस्त नहीं किया जाएगा।
कोर्ट ने कहा था कि यह दो समलैंगिक वयस्कों द्वारा सहमति से बनाए गए यौन संबंध तक ही सीमित रहेगा। पीठ ने कहा कि अगर धारा-377 को पूरी तरह निरस्त कर दिया जाएगा तो आरजकता की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। हम सिर्फ दो समलैंगिक वयस्कों द्वारा सहमति से बनाए गए यौन संबंध पर विचार कर रहे हैं. यहां सहमति ही अहम बिन्दु है।
पीठ ने कहा था कि आप बिना दूसरे की सहमति से अपने यौन झुकाव को नहीं थोप सकते. पीठ ने यह भी कहा कि अगर कोई भी कानून मौलिक अधिकारों को हनन करता है तो हम कानून को संशोधित या निरस्त करने के लिए बहुमत वाली सरकार के निर्णय का इंतजार नहीं कर सकते।
पीठ ने कहा, ‘मौलिक अधिकारों का पूरा उद्देश्य है कि यह अदालत को निरस्त करने का अधिकार देता है। हम बहुमत वाली सरकार द्वारा कानून को निरस्त करने का इंतजार नहीं कर सकते. अगर कानून असंवैधानिक है तो उस कानून को निरस्त करना अदालत का कर्तव्य है।
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 11 दिसंबर 2013 को सुरेश कुमार कौशल बनाम नाज फाउंडेशन मामले में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए समलैंगिकता को अपराध माना था।
2 जुलाई 2009 को दिल्ली हाईकोर्ट ने धारा 377 को अंसवैधानिक करार दिया था। इस मामले में पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी थी और फिलहाल पांच जजों के सामने क्यूरेटिव बेंच में मामला लंबित है।attacknews.in