जोधपुर (राजस्थान), सात दिसंबर। हैदराबाद में पशु चिकित्सक से बलात्कार-हत्या की घटना और इसके चारों आरोपियों के पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने के मद्देनजर प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबडे ने शनिवार को कहा कि न्याय कभी तुरंत नहीं होना चाहिए और जब यह प्रतिशोध बन जाता है तब यह अपनी विशेषता खो देता है।
साथ ही, सीजेआई ने स्वीकार किया कि देश में हुई हालिया घटनाओं ने नयी ताकत के साथ एक पुरानी बहस फिर से छेड़ दी है, जहां इसमें कोई संदेह नहीं है कि फौजदारी न्याय प्रणाली को आपराधिक मामलों के निपटारे में लगने वाले समय के प्रति अपनी स्थिति एवं रवैये पर अवश्य ही पुनर्विचार करना चाहिए।
यहां राजस्थान उच्च न्यायालय के नये भवन के उद्घाटन के दौरान न्यायमूर्ति बोबडे ने कहा, ‘‘न्याय कभी तुरंत नहीं होना चाहिए। न्याय को कभी प्रतिशोध का रूप नहीं लेना चाहिए। मेरा मानना है कि न्याय उस वक्त अपनी विशेषता खो देता है जब यह प्रतिशोध का रूप धारण कर लेता है।’’
हैदराबाद में एक महिला पशु चिकित्सक से बलात्कार और उसकी हत्या के सभी चारों आरोपियों के पुलिस के साथ मुठभेड़ में मारे जाने के तेलंगाना पुलिस के दावे के एक दिन बाद सीजीआई ने यह टिप्पणी की।
इस घटना ने 16 दिसंबर 2012 के निर्भया मामले की यादें ताजा कर दी। हैदराबाद की घटना को लेकर बलात्कार के दोषियों को शीघ्रता से सजा देने की मांग शुरू हो गई। पुलिस मुठभेड़ में आरोपियों के मारे जाने की घटना की समाज के कुछ हिस्सों में प्रशंसा की गई, जबकि अन्य ने ‘‘न्यायेतर कार्रवाई’’ को लेकर चिंता जताई।
कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने सीजेआई और अन्य वरिष्ठ न्यायाधीशों से यह सुनिश्चित करने का अनुरोध किया कि बलात्कार के मामलों का शीघ्रता से निपटारे के लिए एक तंत्र हो। उन्होंने कहा कि देश की महिलाएं तकलीफ में और संकट में हैं तथा वे न्याय की गुहार लगा रही हैं।
उन्होंने कहा कि ‘‘कानून का शासन’’ से शासित होने वाले एक गौरवशाली देश के रूप में भारत का दर्जा अवश्य ही यथाशीघ्र बहाल होना चाहिए। सरकार इस उद्देश्य के लिए धन प्रदान करेगी।
मंत्री ने कहा कि जघन्य अपराधों एवं अन्य की सुनवाई के लिए 704 त्वरित अदालतें हैं तथा सरकार यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पॉक्सो) और बलात्कार के अपराधों से जुड़े मुकदमों की सुनवाई के लिए 1,123 समर्पित अदालतें गठित करने की प्रक्रिया में जुटी हुई है।
उन्होंने कहा, ‘‘महिलाओं से हिंसा से जुड़े कानून में हमने मौत की सजा का प्रावधान किया है और मुकदमे की सुनवाई दो महीने में पूरी करने सहित अन्य कठोर दंड के प्रावधान किए हैं।’’
सीजेआई ने इस बात पर जोर दिया कि एक संस्था के तौर पर न्यायपालिका को अवश्य ही न्याय तक सभी लोगों की पहुंच सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए, जिसके लिए मौजूदा ढांचे को मजबूत किया जाए तथा विवादों का वहनीय, त्वरित एवं संतोषजनक समाधान के नये तरीके तलाशने चाहिए।
सीजेआई ने कहा कि इसके साथ-साथ ‘हमें बदलावों और न्यायपालिका के बारे में पूर्वधारणा से भी जरूर अवगत रहना चाहिए।’’
सीजेआई ने कहा, ‘‘हमें न सिर्फ मुकदमे में तेजी लाने के लिए तरीके तलाशने होंगे, बल्कि इन्हें रोकना भी होगा। ऐसे कानून हैं जो मुकदमे से पूर्व की मध्यस्थता मुहैया करते हैं।’’
उन्होंने कहा कि मुकदमा-पूर्व अनिवार्य मध्यस्थता पर विचार करने की जरूरत है।
उन्होंने कहा कि आश्चर्य है कि मध्यस्थता में डिग्री या डिप्लोमा का कोई पाठ्यक्रम उपलब्ध नहीं है।
प्रधान न्यायाधीश ने शीर्ष न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों द्वारा पिछले साल किए गये संवाददाता सम्मेलन को महज ‘खुद में सुधार करने का एक उपाय’ भर बताया।
गौरतलब है कि एक अभूतपूर्व कदम उठाते हुए शीर्ष न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर, न्यायमूर्ति रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति एम बी लोकुर और न्यायमूर्ति कुरियन जोसफ ने 12 जनवरी 2018 को संवाददाता सम्मेलन किया था। इसमें उन्होंने कहा था कि शीर्ष न्यायालय में सबकुछ ‘ठीकठाक नहीं’ है और कई ऐसी चीज़ें हुई हैं जो अपेक्षित से कहीं कम हैं।
बाद में, उसी साल न्यायमूर्ति रंजन गोगोई तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) दीपक मिश्रा के सेवानिवृत्त होने पर इस शीर्ष पद पर नियुक्त हुए थे।
सीजेआई ने कहा, ‘‘मेरा मानना है कि इस संस्था (न्यायपालिका) को खुद में सुधार करना चाहिए और नि:संदेह यह उस समय किया गया, जब संवाददाता सम्मेलन किया गया था जिसकी काफी आलोचना हुई थी। यह खुद में सुधार करने के एक उपाय से ज्यादा कुछ नहीं था और मैं इसे उचित ठहराना नहीं चाहता।’’
उन्होंने कहा, ‘‘खुद में सुधार लाने के उपायों की न्यायपालिका में जरूरत है लेकिन उन्हें प्रचारित किया जाए या नहीं, यह बहस करने का विषय है।’’
सीजेआई ने कहा, ‘‘सभी न्यायाधीश प्रतिष्ठित थे और विशेष रूप से न्यायमूर्ति (रंजन) गोगोई ने काफी क्षमता का प्रदर्शन किया तथा न्यायपालिका का नेतृत्व किया।’