नयी दिल्ली, 20 नवंबर ।उच्चतम न्यायालय ने बुधवार को कहा कि राज्य (सरकार) का काम करने वाले निजी लोगों द्वारा नागरिकों के जीवन एवं निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार जैसे मौलिक अधिकारों के हनन का निराकरण नहीं किया जाता है तो संविधान ‘‘अपना महत्व खो’’ देगा ।
संविधान के तहत जीवन, समानता का अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकार राज्य और उसकी मशीनरी तथा राज्य का काम करने वाले निजी पक्ष के खिलाफ लागू करने योग्य हैं, लेकिन वे यह दलील दे रहे हैं कि नागरिकों के ऐसे अधिकारों के उल्लंघन के लिए उन्हें जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकता है।
उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री आजम खान की ओर से बलात्कार के मामले में की गयी एक विवादित टिप्पणी से संबंधित मामले से उठे मुद्दे पर सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अगुवाई वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा, ‘‘सरकार का काम करने वाले निजी पक्षों द्वारा (नागरिकों के) मौलिक अधिकारों के हनन का कोई समाधान नहीं किया गया तो संविधान अपना महत्व खो देगा।’’
न्याय मित्र के रूप में संविधान पीठ की सहायता करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने कहा कि सार्वजनिक कार्य करने के लिए आपका सरकारी कर्मचारी और सरकारी संस्था अनिवार्य रूप से होने का विचार दशकों पहले समाप्त हो चुका है कयोंकि निजी व्यक्ति और कंपनियां भी अब उन कार्यों को कर रही हैं जिन्हें पहले सरकार का काम समझा जाता था ।
उन्होंने पीठ से कहा कि सिर्फ सरकारी कर्मचारियों के लोक सेवा करने वाले सिद्धांत पर दोबारा विचार किया जाना चाहिए। इस पीठ में मिश्रा के अलावा न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी, न्यायमूर्ति विनीत सरन, न्यायमूर्ति एम आर शाह और न्यायमूर्ति एस रविंद्र भट शामिल हैं ।
साल्वे ने निजी लोगों द्वारा किए जा रहे सरकारी कार्यों का उल्लेख करते हुए कहा कि समाज में प्रगति के साथ, राज्य की भूमिका कम हो गयी है। सरकारी अधिकारियों की हमारे जीवन में भूमिकाएं भी सीमित हो गयी है और उसी अनुसार हमारे न्यायशास्त्र को बदलना होगा ।
इस पर पीठ ने कहा, ‘‘इसका मतलब है कि आप यह कह रहे हैं कि रेलवे और टोल वसूली का काम अगर निजी कंपनियों को दिया जाता है तो उन्हें मौलिक अधिकारों को कायम रखने के लिए जिम्मेदार बनाया जाना चाहिए ।’’
साल्वे ने कहा कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए निजी संस्थाओं को विशेषाधिकारों के साथ संवैधानिक सिद्धांत को अपनाने का समय आ गया है।
पीठ ने इससे पहले आजम खान के विवादित बयान का संज्ञान लिया था जिसमें सपा नेता ने 2016 में बुलंदशहर में हुए सामूहिक बलात्कार को ‘‘राजनीतिक साजिश’’ का हिस्सा बताया था ।
बाद में खान ने उच्चतम न्यायालय में बिना शर्त माफी मांगी थी जिसे स्वीकार कर लिया गया था ।
शीर्ष अदालत ने मामले को निपटाते हुए इस बड़े मुद्दे का फैसला करने के लिए इसे पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ में भेज दिया था ।
साल्वे ने कहा कि लोकतंत्र बड़ा नाजुक है और यह ‘‘व्यवस्था में लोगों के विश्वास’’ पर निर्भर है और ‘‘अवमानना के कानून का इस्तेमाल किसी व्यक्ति की सुरक्षा के लिए नहीं बल्कि संस्था में जनता के भरोसे को बनाये रखने के लिए किया जाना चाहिए ।’’
उन्होंने कहा, ‘‘लोकतंत्र, व्यवस्था में लोगों के भरोसे पर आधारित है और इसके अलावा, कोई मंत्री संविधान के तहत शपथ से बंधा हुआ है तथा संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए बाध्य है।’’
अधिवक्ता ने कहा कि एक मंत्री जो संविधान के अनुसार पद और गोपनीयता की शपथ लेता है, उसे ‘‘अपने संवैधानिक शपथ के अनुरूप ही “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार” का इस्तेमाल करना होगा ।’’
उन्होंने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार किसी मंत्री को इस बात की स्वतंत्रता नहीं देता है कि वह इस प्रकार का बयान दे जो पीड़ित के जीवन और निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार को ‘‘प्रभावहीन’’ कर दे ।
अधिवक्ता ने कहा कि अगर राज्य अपने संवैधानिक दायित्वों को पूरा करने में विफल हो जाता है तो पीड़ित व्यक्ति ऐसे गलत लोकसेवकों के खिलाफ अपकृत्य कानून के तहत क्षतिपूर्ति की मांग कर सकता है।
उन्होंने कहा, ‘‘यह राज्य का संवैधानिक कर्त्तव्य है कि वह इस बात को सुनिश्चित करे कि इसके नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन नहीं हो और ऐसा माहौल तैयार किया जाए जिसमें इन अधिकारों का आनंद उठा सकें।’’