इलाहाबाद, 05 अक्टूबर । हिंदू संस्कृति में मनुष्य पर माने गये सबसे बड़े ऋण “ पितृ ऋण’’ से मुक्त होने के लिए निर्धारित विशेष समयकाल “ पितृपक्ष ” में पूर्वजों का मुक्तिकर्म अर्थात श्राद्ध कर्म आधुनिकता से अछूता न रह सका।
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार श्राद्ध करने की भी विधि होती है। यदि पूरे विधि विधान से श्राद्ध कर्म न किया जाए तो मान्यता है कि वह श्राद्ध कर्म निष्फल होता है और पूर्वजों की आत्मा अतृप्त ही रहती है। शास्त्र सम्मत मान्यता यही है कि किसी सुयोग्य विद्वान ब्राह्मण के जरिए ही श्राद्ध कर्म (पिंड दान, तर्पण) करवाना चाहिए।
गंगापुत्र घाटिया संघ के महामंत्री आनंद द्विवेदी ने बताया कि शास्त्रों में पितृपक्ष के दौरान श्राद्ध की विशेष महत्ता बतायी गई है। लेकिन आधुनिकता की साया इसपर भी मंडराने लगा है। यजमानों में श्राद्ध के प्रति आस्था, श्रद्धा और पुरानी परंपरा का लोप नजर आने लगा है। धार्मिक मान्यता के अनुसार पिंडदान का पूजन करने वाले व्यक्ति को नयी सफेद धोती-कुर्ता, धोती-बनियान पहनना कर और मुंड़न कराकर, जनेऊ धारण करके पूर्वजो को श्रद्धा पूर्वक श्राद्ध करना चाहिए। लेकिन इस रीति रिवाज में कुछ ग्रामीण पृष्ठभूमि के लोग ही नजर आते हैं।
श्री द्विवेदी ने बताया कि संगम तट पर पितृ ऋण से मुक्ति के लिए किये जा रहे तर्पण एवं पिण्दान में अब यह सब दिखने लगा है। श्राद्ध कर्म कराने और करने वालों के पहनावे से लेकर दान दक्षिणा तक का स्वरूप बदल गया है। शहरी लोग पैंट-शर्ट पहनकर कर्म करते हैं जो सर्वथा अनुचित है।
उन्होंने बताया कि पितृपक्ष का गरूड पुराण में विस्तृत विवरण है। उन्होने बताया कि पहले पितृपक्ष में श्राद्ध कराने वाले ब्राह्मण को घर का बना भोजन श्रद्धा पर्वक कराते थे। उसके बाद दक्षिणा में सफेद धोती, बनियान, गमछा, जनेऊ, तुलसी की माला, गीता का गुटका, खडाऊं और दक्षिणा देकर ब्राह़मण से प्रसन्न होने और पैर छूकर आर्शीवाद लेते थे। लेकिन अब लोग बाजार से तैयार भोजन मंगा कर खिलाते हैं। कुछ यजमान तो ऐसे हैं जो श्राद्ध कर्म कराने वाले पंडित को कुछ दक्षिणा के साथ ब्रेड, बिस्किट और चाकलेट दे रहे हैं। पुरोहितों को कुछ यजमान अब पैसा देकर भेाजन कराने से फुर्सत लेने लगे हैं।
उन्होने शास्त्रों के हवाले से बताया कि श्रद्धा पूर्वक पितृ श्राद्ध की क्रिया देर तक चलती है। लम्बे समय तक कर्म काण्ड (पूजा) में बैठने के बजाय यजमान कुछ समय में अपने को फारिग होने की बात पुरोहित से कहते हैं। पूजन के बाद पिण्डदान के लिए बनी पिंडी को लोग गाय को खिलाने के बाद जल अर्पित कर स्नान करना चाहिए लेकिन यजमान पुरोहित को ही पिण्डी देकर बिना स्नान किये वापस जाते हैं।
एक अन्य तीर्थ पुरोहित राजेन्द्र पालीवाल ने बताया कि समय के साथ लोगों में पितरों के श्राद्ध के प्रति श्रद्धा और समर्पण में बदलाव आया है। अस्सी के दशक में लोग पूरे परिवार के साथ तर्पण करने आते थे। यह समर्पण अब कम नजर आने लगा है। आधुनिकता की चकाचौंध में हमें अपनी संस्कृति, सभ्यता व संस्कारों को दरकिनार नहीं करना चाहिए। इसकी चपेट में युवा पीढ़ी ही अधिक प्रभावत हो रही है। युवा इसे पिछड़ापन और रूढ़िवादिता का नाम देते हैं। भोग विलास और आधुनिकता की चकाचौंध और ऐश्वर्य उनके जीवन उनका आदर्श बन गए हैं।
श्री पालीवाल ने कहा कि पूर्वजों को श्रद्धापूर्वक स्मरण करना चाहिए। वे चाहे जिस योनि में हों उन्हें दु:ख नहीं मिलना चाहिए। उनकी सुख-शांति के लिए पिंडदान तर्पण करना ही श्राद्ध की महिमा है। श्राद्ध से पितर तृप्त होते हैं। श्राद्ध पक्ष के दौरान कृतज्ञता पूर्वक पितरों का स्मरण करना चाहिए। श्राद्ध की परंपरा को बनाए रख हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को जीवित रख सकते हैं। श्रद्धा से की गई श्राद्ध भी अवश्य पितरों तक पहुंचती है।
तीर्थ पुरोहित ने बताया कि हमारी सोच हमारे परिवेश द्वारा निर्धारित और नियंत्रित होती है। परंपरावादी परंपरा को श्रेष्ठ मानते हैं। जो सदियों से शहस्त्राब्दियों से चली आ रही है उसे छोडा नहीं जाना चाहिए। अपनी संस्कृति और परंपरा की उपेक्षा या छोड़ना संभव नहीं है लेकिन इसके विपरीत आधुनिकतावादी या प्रगतिशील हर क्षेत्र में अमूलचूल परिवर्तन को ही एकमात्र विकल्प मानते हैं।
उन्होंने बताया कि वैदिक कर्मकांड में पितरों का बहुत महत्व माना गया है, उनके आशीर्वाद के बिना कोई मांगलिक कार्य नहीं किया जा सकता। इसलिए, हर पूजा गणेश और माता के साथ पितरों का पूजन भी अनिवार्य माना गया है। वास्तव में, पितृ दोष और कुछ नहीं, इन्हीं संस्कारों और नैतिक मूल्यों को गिरा कर आगे बढ़ने से लगा दोष है। व्यक्ति को तरक्की करना चाहिए लेकिन आधुनिकता के नाम पर संस्कारों और नैतिक मूल्यों का जो पतन किया जाता है, उसी से पितृ दोष लगता है।
श्री पालीवाल ने बताया कि गरुड़ पुराण, मत्स्य पुराण, मार्कण्डेय पुराण और अनेक धर्मशास्त्रों में श्राद्ध का विस्तृत महात्म बताया गया है। श्रद्धा पूर्वक इसके करने से लाभ का भी वर्णन किया या है। महर्षि जाबालि ने कहा है कि पितृपक्ष में श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करने से पुत्र, आयु, आरोग्य एवं मनोवांछित वस्तुओं की प्राप्ति होती है। गरूण पुराण में कहा गया है कि पितृ पूजन से संतुष्ट होकर पितर मनुष्यों को दीघार्यु, पुत्र, यश, कीर्ति, पुष्टि बल एवं वैभव आदि प्रदान करते हैं।attacknews.in