देहरादून 09 फरवरी । उत्तराखंड के चमोली जिले के रैणी गांव में आई आपदा को लेकर इसरो के वैज्ञानिकों ने अहम जानकारी देते हुए कहा है कि यह आपदा ग्लेशियर के टूटने से नहीं बल्कि भारी मात्रा में बर्फ पिघलने से आयी है। अभी तक माना जा रहा था कि ग्लेशियर टूटने से आपदा आई है। लेकिन अब सेटेलाइट से ली गई तस्वीरों से वैज्ञानिकों ने आपदा की असली वजह साफ की है।
वैज्ञानिकों ने बताया है कि क्षेत्र में ग्लेशियर नहीं टूटा बल्कि भारी मात्रा में बर्फ पिघलने से आपदा आई है।
बैठक में इसरो के वैज्ञानिकों ने सेटेलाइट से ली गई तस्वीरों से साफ किया कि यह आपदा ग्लेशियर टूटने से नहीं आई। तापमान बढ़ने से बर्फ पिघली और यह हादसा हो गया। तस्वीरों के माध्यम से प्रारंभिक रूप से ये ही जानकारी सामने आई है। अभी अध्ययन किया जा रहा है जिससे ज्यादा जानकारी सामने आ सके।
ग्लेशियर टूटने की घटना के बाद जोशीमठ के लिए रवाना हुए वैज्ञानिक
इससे पहले उत्तराखंड में ग्लेशियर का एक हिस्सा टूटने की घटना के बाद सोमवार को वैज्ञानिकों का एक दल देहरादून से जोशीमठ क्षेत्र पहुंचा।
डीआरडीओ के ‘बर्फ और हिमस्खलन अध्ययन प्रतिष्ठान (एसएएसई)’ के वैज्ञानिक रविवार रात को हवाई मार्ग से उत्तराखंड की राजधानी पहुंचे थे।
गृह मंत्रालय के प्रवक्ता ने सोमवार को कहा था कि , “डीआरडीओ-एसएएसई के वैज्ञानिकों का एक दल बीती रात देहरादून के लिए विमान से रवाना हुआ था। अब यह दल निरीक्षण करने और प्राथमिक जानकारी एकत्रित करने के लिए जोशीमठ इलाके के लिए निकल रहा है।”
रविवार को उत्तराखंड के चमोली जिले में नंदा देवी ग्लेशियर का एक भाग टूट गया था जिससे अलकनंदा नदी में बाढ़ की स्थिति पैदा हो गई थी।
इस घटना में पनबिजली परियोजनाओं को नुकसान हुआ ।
उत्तराखंड के पुलिस महानिदेशक अशोक कुमार ने कहा था कि रैणी और तपोवन में दो पनबिजली परियोजनाओं में काम करने वाले 173 लोग लापता हैं, जिनमें से 27 के शव बरामद हुए हैं।
वैज्ञानिकों को पूर्वी हिमालय क्षेत्र में भूकंप के भूगर्भीय साक्ष्य मिले:
यह खोज पूर्वी हिमालय क्षेत्र में भूंकप की संभावना वाले क्षेत्रों की पहचान करने में मदद कर सकती है:
वैज्ञानिकों को असम और अरुणाचल प्रदेश की सीमा पर स्थित हिमबस्ती गाँव में भूकंप का पहला भूगर्भीय साक्ष्य मिला है। इतिहासकारों ने इसे इस क्षेत्र में बड़े विनाश का कारण बने सदिया भूकंप के रुप में दर्ज किया है। ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार 1667 ईस्वी में आए इस भूकंप ने सदिया शहर को पूरी तरह से तहस नहस कर दिया था।
यह खोज पूर्वी हिमालय क्षेत्र में भूंकप की संभावना वाले क्षेत्रों की पहचान करने और उसके अनुरुप यहां निर्माण गतिविधियों की योजना बनाने में मददगार हो सकती है।
ऐतिहासिक अभिलेखागारों में पूर्वी हिमालय क्षेत्र में अक्सर आने वाले ऐसे भूकंपों के बारे में भूवैज्ञानिक प्रमाण उपलब्ध नहीं होने की बात कही गई है। ऐसे में ये सवाल उठना स्वाभिक था कि लाखों की आबादी वाले ऐसे क्षेत्र में आते रहे भूकंपों के बारे में कोई जानकारी अभी तक क्यों नहीं जुटाई जा सकी या इन्हें नजरअंदाज किया गया।
भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी ) के तहत एक स्वायत्त अनुसंधान संस्थान वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान (डब्लूआईएचजी) के वैज्ञानिकों ने अरुणाचल प्रदेश के हिमबस्ती गाँव के उस क्षेत्र में उत्खनन किया जहाँ 1697 में सादिया भूकंप आने के ऐतिहासिक साक्ष्य मिले हैं। उत्खनन में प्राप्त इन साक्ष्यों का आधुनिक भूवैज्ञानिक तकनीकों के माध्यम से विश्लेषण किया गया।
अध्ययन में वैज्ञानिकों ने पाया कि इस क्षेत्र में जमीन के नीचे चट्टानें खिसकने से आए भूकंप के निशान नदियों और झरनों के पास सतह के उपर जमा भूगर्भीय पदार्थों के रूप में मौजूद हैं। इस बारे में और गहन अध्ययन के लिए वैज्ञानिकों ने यहां उत्खनन स्थल से इक्कीस रेडियोकार्बन नमूने इकठ्ठा किए।
उन्होंने सुबनसिरी नदी के डेल्टा क्षेत्र में गादर वाले स्थान पर बड़े बड़े वृक्षों की टहनियां (सदिया सुबनसिरी नदी के दक्षिण-पूर्व में लगभग 145 किमी दूर स्थित है) गाद में दबी पाईं जो यह बताता है कि भूकंप के बाद भी छह महीने तक आते रहे इसके हल्के झटकों की वजह से नदी में इतनी मिट्टी और मलबा जमा हो गया था कि उसकी सतह उपर उठ गई। यह शोध हाल ही में ‘साइंटिफिक रिपोर्ट’ पत्रिका में प्रकाशित हुई है।
लोहित नदी के दाहिने किनारे पर घने वनों से आच्छादित पूर्वी हिमालय क्षेत्र के घास से ढके मैदानी इलाके में मौजूद रहकर सादिया में सदियों पहले आए भूकंप का अध्ययन काफी मायने रखता है। इससे घनी आबादी वाले इस क्षेत्र में भूकंप के खतरे वाले इलाकों को पहचानने तथा आगे यहां आधारभूत संरचनाओं के निर्माण की योजनाएं बनाने में काफी मदद मिलेगी।