उज्जैन 27 फरवरी । विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन में ऐसा भी दौर आया था जब पूरे देशभर में सरकारी और निजी संस्थानों द्वारा नौकरी के लिए निकाली जानें वाली विज्ञापनों की विज्ञप्तियों में, ” विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के विद्यार्थी आवेदन नहीं करें”,लिखा रहता था और वर्ष 2004 से 2008 तक का ऐसा भी दौर आया जब विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन का नाम पूरे देश में गौरव के साथ लिखा गया और इस विश्वविद्यालय को विश्व के प्रथम गुरूकुल का स्थान दिलवाया कि,यही भगवान श्री कृष्ण ने आचार्य संदीपनी से 64 कलाओं में शिक्षा प्राप्त की थी।और इस गौरव को स्थापित करने में विश्वविद्यालय के 2004 में नियुक्त किए गए कुलपति प्रोफेसर रामराजेश मिश्र का नाम विश्वविद्यालय के इतिहास में गौरवशाली युग की शुरुआत करने के रूप मे दर्ज हैं ।
विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन की स्थापना के समय इसका कार्यक्षेत्र सम्पूर्ण मध्यप्रदेश,उत्तरप्रदेश,राजस्थान और दिल्ली तक फैला हुआ था,इस विश्वविद्यालय में अध्यापन करने वाले छात्रों की अनगिनत संख्या दर्ज हैं किन्तु इसे उस बुरे दौर से गुजरना पड़ा जब इसे चक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के नाम से उच्चारित किया जाने लगा साथ ही इसकी उपाधियों को भी योग्यता के बाहर मान लिया गया।इसके अलावा वह दुर्दिन भी रहे कि,सम्पूर्ण परिसर जीर्ण-शीर्ण हो चला था,रखरखाव की हालत दयनीय हो गई थी,सुरक्षा के लिहाज से स्थिति भी अच्छी नहीं थी और तो और अपनी सम्मानजनक पहचान के लिए विश्वविद्यालय के पास कोई आधार नहीं था।
इसी बीच जुलाई 2004 में महामहिम राज्यपाल डा बलराम जाखड़ ने स्वनिर्णय लेकर ऊर्जावान और युवा प्रोफेसर रामराजेश मिश्र को कुलपति का दायित्व सौंपकर यह वचन भी लिया कि,जिस गौरव के साथ इस विश्वविद्यालय की स्थापना हुई है उससे आगे अब तुम्हें ले जांना है”,अंततोगत्वा प्रोफेसर रामराजेश मिश्र ने बहुत ही कम समय में वह कर दिखाया जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती धी और विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन का नाम देश ही नहीं विदेशों में भी सम्मान के साथ लिया जाने लगा ।
इस अप्रतिम गौरव को दिलवाने में प्रोफेसर रामराजेश मिश्र की यही मंशा थी कि,”यह मेरी मातृसंस्था हैं और इसका कर्ज जीवन की अंतिम सांस तक रहेगा,जिसे चुकाने के लिए मेरी अंतिम सांस भी इसे समर्पित है ।”
“ज्यों-की-त्यों धर दीन्हि चदरिया” इसी उक्ति को प्रो रामराजेश मिश्र ( Professor Ramrajesh Mishra) ने इस विश्वविद्यालय के लिए सार्थक किया हैं ।
उज्जैन में सम्राट विक्रमादित्य, भगवान श्री कृष्ण और महर्षि संदीपनी के नाम को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में शोध और अनुसंधान का कार्य सतत् जारी रखने के लिए पूर्व कुलपति और कवि तथा लेखक प्रो. राम राजेश मिश्र ने अथक परिश्रम किए ।
प्रो रामराजेश मिश्र ने ही विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह के आयोजन की टूटी हुई परंपरा को वापस जीवित किया था ।
मध्यप्रदेश के उज्जैन स्थित विक्रम विश्वविद्यालय ( #Vikram #University #Ujjain)मध्य प्रदेश में प्रसिद्ध शिक्षण महाविद्यालयों में से एक है।
इसकी स्थापना 1 मार्च, 1957 को हुई जब इसने अपना कार्य करना प्रारंभ किया , इस विश्वविद्यालय में सामाजिक मानवशास्त्र का अध्ययन सर्वप्रथम प्रारम्भ हुआ था।
विश्वविद्यालय का पुस्तकालय ‘महाराजा जीवाजी राव पुस्तकालय’ के नाम से जाना जाता है।
उज्जैन के प्राचीन शहर में स्थित ‘विक्रम विश्वविद्यालय’, विपुल शासक विक्रमादितय के नाम पर है।
1957 में स्थापित यह विश्वविद्यालय मध्य प्रदेश के सबसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों में से एक माना जाता है।
इस विश्वविद्यालय का एक और महत्वपूर्ण भाग था विश्वविद्यालय की प्रेस , जो 1961 में स्थापित की गई थी। इसका परिसर उपग्रह से जुड़ा हुआ था और 500 से अधिक ऑनलाइन शोध पत्रिकाओं तक इसकी पहुँच थी।
विश्वविद्यालय के अलमा मेटर के रूप में कई प्रख्यात हस्तियाँ हैं। यहाँ के मेधावी छात्रों की सूची में कई वैज्ञानिक, शिक्षाविद और भारत के एक पूर्व न्यायाधीश हैं।
यह जानना काफ़ी दिलचस्प और आवश्यक भी होगा कि उज्जैन में दीक्षांत समारोह का इतिहास क्या था और विक्रम विश्वविद्यालय के विकास कार्यों में डॉ. मिश्र का क्या योगदान रहा ?
संक्षेप में कहें, तो 1956 में विवि की स्थापना हुई, जिसके लिए 23 हस्तियों ने आंदोलन चलाया। पंचाट बैठी और पं. जवाहरलाल नेहरू ने फ़ैसला सुनाया कि उज्जैन सांस्कृतिक राजधानी है, इसलिए उसे शिक्षा स्थल बनाया जाना चाहिए।
ग्वालियर रियासत के तत्कालीन महाराजा जीवाजी राव सिंधिया ने इसके लिए 300 एकड़ ज़मीन दी और कहा कि वे विश्वविद्यालय के विक्रम नामकरण से भी सहमत हैं। कमल विला के दो कमरों में विश्वविद्यालय प्रारंभ हो गया और पहले प्रशासक बने भाषा, संस्कृति, शिक्षा और साहित्य के विद्वान डॉ. बूलचंद।
प्रो. राम राजेश मिश्र का कुलपति पद का कार्यकाल वर्ष 2004 से 2008 तक है, जिसमें वे दो बार कुलपति रहे। इस दौरान विक्रम विश्वविद्यालय का काफ़ी अच्छा विकास हुआ। उन्होंने अध्ययन, अध्यापन, शोध और विस्तार कार्य पर ज़ोर दिया।
एक ऐसा भी दौर आया था जब विक्रम में 1975 से दीक्षांत समारोह बंद कर दिया गया था, जिसे, डॉ. मिश्र ने 2007 में पुनः प्रारम्भ किया।इसकी विशेषता यह थी कि यह वैदिक परंपराओं के साथ शुरू हुआ था, जैसा कि हमारे तैत्रीय उपनिषद में निर्देश किया गया है,इस नई परंपरा की शुरुआत की स्क्रिप्ट डॉ. मिश्र ने स्वयं तैयार की, जिसका सरकार ने अध्यादेश जारी किया और आज प्रदेश के सभी विश्वविद्यालयों में उसी परंपरा के अनुसार दीक्षांत समारोह आयोजित होता है।
इस दीक्षांत समारोह में भारत की पाँच बड़ी हस्तियों को मानद उपाधि से अलंकृत किया गया, जो सभी विक्रम से पढ़े हैं, ये हैं—न्यायमूर्ति श्री जीके लाहोटी, स्वामी अवधेशानंद जी, स्वामी गोकुलोत्सव महाराज, श्री उदय शंकर अवस्थी और श्री आलोक मेहता।
उज्जैन शैव परंपरा का स्थान है, इसलिए अवधेशानंद जी का नाम तय किया गया।उज्जैन श्रीकृष्ण भगवान की शिक्षा स्थली है, अतः गोकुलोत्सव जी महाराज का नाम सामने आया। जस्टिस लाहोटी सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं। श्री अवस्थी कांडला उर्वरक के प्रसार के अग्रदूत हैं और श्री मेहता पत्रकारिता, साहित्य और शिक्षा में अग्रणी हैं।
17 विभागों के विश्वविद्यालय को प्रो. मिश्र ने 27 तक पहुंचाया, जिसमें वैदिक विज्ञान, लोक प्रशासन, माइक्रो-बायोलॉजी, समाज सेवा आदि प्रमुख हैं। इसी प्रकार कॉलेजों की संख्या 70 से 150 तक पहुँचाई। एकाधिक शोध संस्थान एवं अध्ययनशालाएँ स्थापित कीं, जिनमें वैदिक, फ़ार्मेसी और बायोकैमिस्ट्री की अध्ययनशालाएँ प्रमुख हैं।आपके ही कार्यकाल में युवासमारोह में विक्रम भारत के पश्चिम क्षेत्र का सिरमौर बना।इसी प्रकार पूर्व में वेस्ट ज़ोन की यहाँ पर दो खेलों की स्पर्धाएँ होती थीं, जिनमें चार खेल और बढ़ा दिए और इस तरह छह खेलों की स्पर्धाएँ होने लगीं।
विक्रम को पाण्डुलिपि के संग्रह के लिए देश का पाँचवाँ बड़ा रिसोर्स सेंटर बनाया गया । विश्वविद्यालय के अकादमिक और प्रशासनिक द्वार बनाए गए। महाराज विक्रमादित्य की प्रतिमा स्थापित की गई।पाँच एकड़ क्षेत्र में विक्रम सरोवर का निर्माण किया गया, जिससे पानी की आपूर्ति हो रही है और सिंचाई भी की जा रही है।बड़े आँवले के 11,000 पेड़ लगाए गए, जिससे क्विंटलों में आँवले की पैदावार हो रही है। इतना ही नहीं पूरे विश्वविद्यालय के चारों तरफ़ दीवार खड़ी की और उस पर मालवा के तीन हज़ार माँडने सजाए गए।यह कार्य शीर्ष चित्रकार प्रो. रामचंद्र भावसार के मार्गदर्शन में संपन्न हुआ।
प्रो. राम राजेश मिश्रा के कार्यकाल पर विस्तार से लिखा जाये , तो शोधपरक कई पुस्तकें प्रकाशित हो जाएगी ।
डॉ. मिश्र को उनके इसी शैक्षणिक नवाचार तथा शिक्षा में गुणवत्ता लाने के लिए यूनेस्को अवार्ड और इंदिरा गांधी अवार्ड से सम्मानित किया गया है। ऐसे वे देश के पहले कुलपति हैं। उन्होंने कॉमनवेल्थ देशों के विश्वविद्यालय संघ के सम्मेलन और संयुक्त राष्ट्र के ऐसे ही एक अन्य सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व किया था। वास्तव में यह हमारे लिए अत्यंत गौरव की बात है।कवि, आलोचक, मप्र के पूर्व संस्कृति सचिव और हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति अशोक वाजपेयी ने जब प्रो. राम राजेश द्वारा सँवारे-सजाए और नए सिरे से बनाए गए विक्रम विश्वविद्यालय को ध्यान से देखा, तो कहा—“ कुलपति हो तो ऐसा ! बूढ़े और थके-हारे के बजाय युवा और स्पष्ट एवं नई दृष्टि रखने वालों को ही कुलपति बनाया जाना चाहिए।”
#Dr. Sushil Sharma