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साधु-संत

प्रयागराज में गंगा,यमुना और सरस्वती के संगम तट पर शुरू हुआ 43 दिनों तक चलने वाला कायाशोधन के कल्पवास वाला माघ मेला, कुंभ मेले के बाद इसे दुनिया के सबसे बड़े सनातन मेले की मान्यता मिली हुई है attacknews.in

इलाहाबाद, 10 जनवरी ।“माघ मकर गति रवि जब होई, तीरथ पतिहिं आव सब कोई, के पुण्य आवाहन के साथ माघ मेले में “पौष पूर्णिमा” के पावन स्नान के साथ ही संयम, अहिंसा, श्रद्धा एवं कायाशोधन के लिए तीर्थराज प्रयाग में गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती की रेती पर कल्पवासियों का एक माह का कल्पवास शुरू हो गया।

पुराणों और धर्मशास्त्रों में कल्पवास को आत्मा की शुद्धि और आध्यात्मिक उन्नति के लिए जरूरी बताया गया है। यह मनुष्य के लिए अध्यात्म की राह का एक पड़ाव है, जिसके जरिए स्वनियंत्रण एवं आत्मशुद्धि का प्रयास किया जाता है। हर वर्ष श्रद्धालु एक महीने तक संगम गंगा तट पर अल्पाहार, स्नान, ध्यान एवं दान करके कल्पवास करते हैं।

वैदिक शोध एवं सांस्कृतिक प्रतिष्ठान कर्मकाण्ड प्रशिक्षण केन्द्र के आचार्य डा आत्माराम गौतम ने कहा कि तीर्थराज प्रयाग में प्रतिवर्ष माघ महीने मे विशाल मेला लगता है। इस अवसर पर लाखों श्रद्धालु यहाँ एक महीने तक संगम तट पर निवास करते हुए जप, तप, ध्यान, साधना, यज्ञ एवं दान आदि विविध प्रकार के धार्मिक कृत्य करते हैं। इसी को कल्पवास कहा जाता है।

कल्पवास का वास्तविक अर्थ है-कायाकल्प। यह कायाकल्प शरीर और अन्तःकरण दोनों का होना चाहिए। इसी कायाकल्प के लिए पवित्र संगम तट पर जो एक महीने का वास किया जाता है उसे कल्पवास कहा जाता है।

प्रतिवर्ष माघ मास में जब सूर्य मकर राशि में रहते हैं, तब माघ मेला एवं कल्पवास का आयोजन होता है। मत्स्यपुराण के अनुसार कुम्भ में कल्पवास का अत्यधिक महत्व माना गया है।

गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ के ‘बालकाण्ड’ में माघ मेला की महत्ता इस प्रकार बतायी है। “माघ मकर गति रवि जब होई, तीरथ पतिहिं आव सब कोई, देव दनुज किन्नर नर श्रेनी, सादर मज्जहिं सकल त्रिवेनी”।

आदिकाल से चली आ रही इस परंपरा के महत्व की चर्चा वेदों से लेकर महाभारत और रामचरितमानस में अलग-अलग नामों से मिलती है। बदलते समय के अनुरूप कल्पवास करने वालों के तौर-तरीके में कुछ बदलाव जरूर आए हैं लेकिन कल्पवास करने वालों की संख्या में कमी नहीं आई है। आज भी श्रद्धालु कड़ाके की सर्दी में कम से कम संसाधनों में कल्पवास करते हैं।

आचार्य गौतम ने कहा कि कल्पवास के पहले शिविर के मुहाने पर तुलसी और शालिग्राम की स्थापना और पूजा अवश्य की जाती है। कल्पवासी अपने घर के बाहर जौ का बीज अवश्य रोपित करता है। कल्पवास समाप्त होने पर तुलसी को गंगा में प्रवाहित कर देते हैं और शेष को अपने साथ ले जाते हैं। कल्पवास के दौरान कल्पवासी को जमीन पर शयन करना होता है। इस दौरान फलाहार या एक समय निराहार रहने का प्रावधान होता है। कल्पवास करने वाले व्यक्ति को नियम पूर्वक तीन समय गंगा में स्नान और यथासंभव अपने शिविर में भजन-कीर्तन, प्रवचन या गीता पाठ करना चाहिए।

मत्सयपुराण में लिखा है कि कल्पवास का अर्थ संगम तट पर निवास कर वेदाध्ययन और ध्यान करना चाहिए। माघ माह के दौरान कल्पवास करने वाले को सदाचारी, शांत चित्त वाला और जितेन्द्रीय होना चाहिए। कल्पवासी को तट पर रहते हुए नित्यप्रति तप, हाेम और दान करना चाहिए।

समय के साथ कल्पवास के तौर-तरीकों में कुछ बदलाव भी आए हैं। बुजुर्गों के साथ कल्पवास में मदद करते-करते कई युवा खुद भी कल्पवास करने लगे हैं। कई विदेशी भी अपने भारतीय गुरुओं के सानिध्य में कल्पवास करने यहां आते हैं। पहले कल्पवास करने आने वाले गंगा किनारे घास-फूस की कुटिया में रहकर भगवान का भजन, कीर्तन, हवन आदि करते थे, लेकिन समयानुसार अब कल्पवासी टेंट में रहकर अपना कल्पवास पूरा करते हैं।

आचार्य ने कहा कि पौष कल्पवास के लिए वैसे तो उम्र की कोई बाध्यता नहीं है, लेकिन माना जाता है कि संसारी मोह-माया से मुक्त और जिम्मेदारियों को पूरा कर चुके व्यक्ति को ही कल्पवास करना चाहिए क्योंकि जिम्मेदारियों से बंधे व्यक्ति के लिए आत्मनियंत्रण कठिन माना जाता है।

माघ मेला एक ऐसा धार्मिक आयोजन है, जिसकी पूरी दुनिया में कोई मिसाल नहीं मिलती। इसके लिए किसी प्रकार का न/न तो प्रचार किया जाता है और न/न ही आमंत्रण और निमंत्रण देना पड़ता है बावजूद इसके पंचांग की एक निश्चिततिथि पर लाखों की संख्या में लोग दूर-दराज से पहुंचते हैं।

प्रयागराज में जब बस्ती नहीं बल्कि आस-पास घोर जंगल था। जंगल में अनेक ऋषि-मुनि जप तप करते थे। उन लोगों ने ही गृहस्थों को अपने सान्निध्य में ज्ञानार्जन एवं पुण्यार्जन करने के लिये अल्पकाल के लिए कल्पवास का विधान बनाया था। इस योजना के अनुसार अनेक धार्मिक गृहस्थ ग्यारह महीने तक अपनी गृहस्थी की व्यवस्था करने के बाद एक महीने के लिए संगम तट पर ऋषियों मुनियों के सान्निध्य में जप तप साधना आदि के द्वारा पुण्यार्जन करते थे। यही परम्परा आज भी कल्पवास के रूप में विद्यमान है।

महाभारत में कहा गया है कि एक सौ साल तक बिना अन्न ग्रहण किए तपस्या करने का जो फल है, माघ मास में कल्पवास करने भर से प्राप्त हो जाता है। कल्पवास की न्यूनतम अवधि एक रात्रि की है। बहुत से श्रद्धालु जीवन भर माघ मास गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम को समर्पित कर देते हैं।

विधान के अनुसार एक रात्रि, तीन रात्रि, तीन महीना, छह महीना, छह वर्ष, 12 वर्ष या जीवनभर कल्पवास किया जा सकता है। पुराणों में तो यहां तक कहा गया है कि आकाश तथा स्वर्ग में जो देवता हैं, वे भूमि पर जन्म लेने की इच्छा रखते हैं। वे चाहते हैं कि दुर्लभ मनुष्य का जन्म पाकर प्रयाग क्षेत्र में कल्पवास करें।

पौष पूर्णिमा स्नान से हुआ माघ मेले का आगाज, कड़ाके की ठंड पर भारी पड़ा आस्था का विश्वास:

इसी के साथ तीर्थराज प्रयाग में गंगा, यमुना एवं अदृश्य सरस्वती के त्रिवेणी संगम तट पर पौष पूर्णिमा स्नान के अवसर पर शुक्रवार तड़के कड़ाके की ठंड़ और शीतलहरी पर आस्था का विश्वास भारी पड़ा ।

देश के कोने-कोने से पहुंचे माघ मेले के पहले स्नान पर त्रिवेणी के तट पर गांगा में मानों आस्था का समन्दर अपनी बाहें फैलाये लाखों श्रद्धालुओं को अपने में अंगीकार कर रहा हो। मेला प्रशासन ने 32 लाख श्रद्धालुओं के स्नान करने का अनुमान लगाया है।

श्रद्धालुओं ने भोर के तीन बजे से ही संगम के पवित्र जल में आस्था की डुबकी लगाना शुरू कर दिया था ।
मेले में विभिन्न संस्कृतियों, भाषाओं और विविधताओं का संगम दिखायी पड़ा । कड़ाके की ठंड और शीतलहर पर आस्था का विश्वास भारी पड़ा। त्रिवेणी के संगम तट पर सांय-सांय करती तेज हवा और कड़ाके की ठंड में पतित पावनी के जल में भोर के चार बजे से ही श्रद्धालु, कल्पवासी, तीर्थयात्री और सांधु-संतों ने ‘‘हर हर गंगे, ऊं नम: शिवाय, श्री राम जयराम जय जय राम” का उच्चारण करते हुए स्नान शुरू कर दिया था ।

कल्पवास करने वाले साधु-संत, सन्यासी, दिव्यांग और गृहस्थ श्रद्धालुओं ने स्नान कर घाट पर बैठे पण्डे और पुरोहितों को दान-दक्षिणा देकर पूजन-अर्चना की। कल्पवासी मोह-माया से दूर एक माह तक व्रत, भजन, पूजन और प्रवचन के लिए अपने तम्बुओं में तल्लीन दिखलायी पड़े।

संगम तट पर श्रद्धालुओं के स्नान करने के लिए तैयार कराये गये पांच किलोमीटर क्षेत्र में घाटों पर श्रद्धालुओं की डुबकी लगाने की भीड़ लगी हुई थी । भोर में स्नान करने वालों की भीड़ कम थी लेकिन दिन चढ़ने के साथ ही स्नान करने वालों की भीड़ बढ़ती गयी। डुबकी लगाने वालों में महिलाएं, बच्चे और बूढ़े और दिव्यांग भी शामिल रहे । स्नान के बाद श्रद्धालु घाट पर बैठे पण्डे और पुरोहितों को चावल, आटा, नमक, दाल, तिल, आदि का दान किया।

प्राचीन काल से संगम तट पर जुटने वाले माघ मेले की जीवंतता में आज भी कोई कमी नहीं आयी है। मेले में आस्था और श्रद्धा से सराबोर पुरानी परम्पराओं के साथ आधुनिकता के रंगबिरंगे नजारे दिखायी पड़ रहे हैं। भारतीय

संस्कृति और आध्यात्म से प्रभावित कई विदेशी भी इस दौरान ‘पुण्य लाभ’ के लिए संगम स्नान करते दिखायी दे रहे हैं।

सभी कल्पवासी अपने-अपने शिविरों में बस चुके हैं। मेला क्षेत्र में चारों ओर लाडस्पीकरों पर ‘ऊं नम: शिवाय’ ‘जय-जय राम जय सिया राम’ के नाम की धुन आनंदित कर रही है। एक तरफ जहां तीन नदियों का संगम है वहीं दूसरीतरफ तम्बुओं के अन्दर से आध्यात्म की बयार बह रही है। चारों ओर धार्मिक अनुष्ठानों के मंत्रोच्चार और हवन में प्रवाहित की जा रही सामग्रियों की भीनी-भीनी खुशबू मेला क्षेत्र के वातावरण को पवित्र और सुगन्धित कर रही है।

माघ मेला, अर्द्ध कुंभ और कुंभ आध्यात्मिक मेला दुनिया में प्रसिद्ध है। यह मेला 43 दिनों तक चलेगा। माघ मेले को मिनी कुंभ भी कहा जाता है।

प्रयाग में कल्पवास की परंपरा सदियों पुरानी है। रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास ने इसका प्रमाण इस चौपाई से दिया है कि ‘

‘‘माघ मकरगत रवि जब होई-तीरथपति आवै सब कोई। देव दनुज किन्नर नर श्रेनीं-सादर मज्जहिं
सकल त्रिबेनी।”

जल पुलिस प्रभारी कड़ेदीन यादव ने बताया कि करीब पांच किलोमीटर लंबे क्षेत्र में स्नान घाटों के साथ पूरे मेला क्षेत्र में सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किये गये हैं। पुलिस और निजी गोताखोरों को घाट के इर्द-गिर्द ही रहने का निर्देश दिया गया है। स्नानार्थियों को एक निर्धारित सीमा से आगे नहीं बढ़ने के लिए रस्सी लगाकर प्रतिबंधित किया गया है। मोटरबोट पर लगातार भ्रमण कर रहे पुलिस और गोताखोर के लोग निगरनी कर रहे हैं।

उन्होंने बताया कि मेले में 103 गोताखोर लगाये गये हैं जिनमें 23 सरकारी और 80 निजी हैं। घाटों पर डि्यूटी के लिए किराये की 130 नाव के साथ 30 मोटरबोट लगाई गयी है।

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