प्रयागराज,11 सितंबर । पितरों को तृप्त करने तथा देवताओं और ऋषियों को काले तिल, अक्षत मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहा जाता है। तर्पण में काला तिल और कुश का बहुत महत्व होता है।
पितरों के तर्पण में तिल, चावल, जौ आदि को अधिक महत्त्व दिया जाता है। श्राद्ध में तिल और कुशा का सर्वाधिक महत्त्व होता है। श्राद्ध करने वालों को पितृकर्म में काले तिल के साथ कुशा का उपयोग महत्वपूर्ण है।
मान्यता है कि तर्पण के दौरान काले तिल से पिंडदान करने से मृतक को बैकुंठ की प्राप्ति होती है। मान्यता है कि तिल भगवान के पसीने से और कुशा रोम से उत्पन्न है इसलिए श्राद्ध कार्य में इसका होना बहुत जरूरी होता है।
प्रयागराज स्थित श्री देवरहवा बाबा सेवाश्रम पीठ के वाचस्पति प्रपन्नाचार्य ने शास्त्रों का हवाला देते हुए बताया कि तर्पण में तिल व कुशा का विशेष महत्व है। वायु पुराण के अनुसार तिल और कुशा के साथ श्रद्धा से जो कुछ पितरों को अर्पित किया जाता है वह अमृत रूप होकर उन्हे प्राप्त होता है। पितर किसी भी योनि में हों उन्हें वह सब उसी रूप में प्राप्त होता है।
उन्होंने बताया कि पितृपक्ष के दौरान पितरों की सद्गति के लिए पिण्डदान और तर्पण के लिए काले तिल और कुश का उपयोग किया जाता है। तिल और कुश दोनों ही भगवान विष्णु के शरीर से निकले हैं और पितरों को भी भगवान विष्णु का ही स्वरूप माना गया है।
उन्होने गरुण पुराण का हवाला देते हुए बताया कि तिल तीन प्रकार के श्वेत, भूरा व काला जो क्रमश: देवता, मनुष्य व पितरों को तृप्त करने वाला होता हैं ।
प्रपन्नाचार्य ने बताया कि दान करते समय भी हाथ में काला तिल जरूर रखना चाहिए इससे दान का फल पितरों एवं दानकर्ता दोनों को प्राप्त होता है। इसके अलावा शहद, गंगाजल, जौ, दूध और घृत,काला तिल और कुश सात पदार्थ को श्राद्धकर्म के लिए महत्वपूर्ण माना गया है।
शंख स्मृति के चौदहवें अध्याय के अनुसार गया धाम में जो कुछ भी पितरों को अर्पित किया जाता है उससे अक्षय फल की प्राप्ति होती है। वाल्मिकी रामायण में भी गया तीर्थ की महत्ता को बताया गया है। वायपुराण में भी गया श्राद्ध की चर्चा है। ज्यादातर पिंडदानी जौ का आटा, काला तिल, खोवा से बने पिंड से पिंडदान करते हैं।