पटना 07 अक्टूबर । बिहार की राजनीति में पिछले पंद्रह वर्षों से निष्कंटक ‘सिरमौर’ बने हुए इंजीनियर नीतीश कुमार ने सोशल इंजीनियरिंग से विकास की राह बनाकर ऐसी धाक जमाई है कि उन्हें चुनौती देना किसी के लिए भी आसान नहीं होगा।
श्री नीतीश कुमार ने नब्बे के दशक में बिहार की राजनीति पर हावी रहे जात-पात के कुचक्र को अपने विकास के मॉडल से ऐसा तोड़ा कि उनकी स्वीकार्यता सभी वर्गों, तबकों और क्षेत्रों में बढ़ी, जिसका प्रमाण वर्ष 2000 से 2015 के बीच हुए विधानसभा चुनावों में जदयू के जनाधार में हुई अप्रत्याशित वृद्धि है । श्री कुमार के नेतृत्व में बिहार ने लालू-राबड़ी सरकार के समय के अगड़े-पिछड़े के ‘खुले वैमनस्य’ को नकार दिया है।
यह श्री कुमार का प्रभाव ही था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में महत्वपूर्ण मंत्रालयों में काम कर उन्होंने ऐसी छवि बनाई कि वर्ष 2000 के विधानसभा चुनाव में जब राजग सबसे बड़े घटक के रूप में सत्ता का दावेदार बना तो अटल-आडवाणी की जोड़ी ने उस समय बिहार में बड़े भाई की भूमिका में रही अपनी पार्टी (भाजपा) के नेताओं के ऊपर श्री नीतीश कुमार को तरजीह दी और उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में काम करने के लिए केंद्र से बिहार में भेज दिया था । हालांकि पहली बार मुख्यमंत्री बनेे श्री कुमार बहुमत नहीं जुटा पाने के कारण 7 दिन में ही पद से इस्तीफा देना पड़ा था।
इस चुनाव के बाद श्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही राजग वर्ष 2005 के फरवरी में चुनाव लड़ी और सरकार बनाने के बेहद करीब भी पहुंच गया था लेकिन ऐन वक्त पर राज्यपाल ने विधानसभा भंग कर दिया । इसके बाद नवंबर में जब दोबारा चुनाव हुआ तो स्पष्ट जनादेश के साथ बिहार में श्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में राजग की सरकार बनी राज्य की सरकार बनी ।
बिहार में पांच साल काम करने के मिले मौके को इंजीनियर नीतीश कुमार ने “सोशल इंजीनियरिंग से विकास की राह” ऐसी बनाई कि वर्ष 2010 का विधानसभा चुनाव हो या वर्ष 2015 का उसी गठबंधन को प्रचंड जनादेश मिला जिसका नेतृत्व नीतीश कुमार कर रहे थे ।