झाबुआ, 29 मार्च । मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल्य झाबुआ जिले मेें आज धुलेंडी के दिन आदिवासियों ने अपना परंपरागत त्यौहार गल और चूल मना कर मनौतियां पूरी की। जिले के कई ग्रामीण क्षेत्रों में इन पर्वो का आयोजन किया गया और आदिवासियों ने अपनी मन्नते उतारी। इस दौरान मुर्गो और बकरों की बलियां भी दी गई, त्यौहार मनाने के स्थानों पर भारी भीड जुटी और मेले भरें।
होली जलने के दूसरे दिन अर्थात धुलेंडी की शाम को आदिवासी समाज में गल घुमने की प्रथा है, जिसके तहत आदिवासी मन्नतधारी व्यक्ति एक सप्ताह पूर्व से व्रत रखता है और अपने शरीर पर हल्दी लगाकर लाल वस्त्र पहनता है और सिर पर सफेद पगडी। उसके हाथों में नारियल और कांच रहता है और गाल पर काला निशान। ये आदिवासी धुलेंडी के दिन गल देवरा घूमते है। गल एक लकडी का 20 से 25 फिट उंचा मचान होता है, जोकि गेरू से लाल कलर का पुता होता है। यह अक्सर गांव और फलिये के बाहर स्थित रहता है।
इस मचान पर एक लंबा लकडी का मजबूत डंडा बाहर निकला होता है, जिस पर मन्नतधारी व्यक्ति को लटका कर बांधा जाता है और फिर नीचे से उसे रस्सी से चारों और घुमाया जाता है।ऐसा चार से पांच बार किया जाता है।
गल देवरा के नीचे पुजारी, बडवा बकरे की बलि देता है और दारू की धार गल देवता को दी जाती है।इस दौरान भारी आदिवासियों की भीड इकडा होती है।
कई जगहों पर झूले, चकरी भी लगते है, आदिवासी लोग ढोल बजाते है, नाचते गाते हैं।बकरे का सिर पुजारी लेता है और धड मन्नत धारी का परिवार ले जाता है।फिर गांव में खाने पीने की दावत होती है।
माना जाता है कि घर में किसी प्रकार की बीमारी न हो और देवता गांव आैर परिवार पर प्रसन्न रहे, इसलिये इस पर्व को मनाया जाता है।
जिले के कई ग्रामीण क्षेत्रों में गल के साथ ही चूल भी वनवासी चलते है, जिसके तहत दहकते अंगारों पर महिला, पुरूष, बच्चे नंगे पांव चलते हैं।चूल चलने के पीछे भी मान्यता है की ऐसा करने से बिमारियां दूर रहती है।
जिले भर में आज गल और चूल का पर्व धूमधाम से मनाया गया।
वहीं, आज धुलेंडी होने पर लोगों ने एक दूसरे को रंग गुलाल लगाकर होली की बधाईयां भी दी।हालांकि कोरोना काल के चलते रंग का पर्व फीका ही रहा।