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जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद फैलाने और आतंकवादियों के पनाहगाह बने संगठन जमात- ए- इस्लामी के बाद अब हुर्रियत की बारी; जाने इनका इतिहास और गतिविधियां attacknews.in

नईदिल्ली/ श्रीनगर 5 मार्च ।  पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले के  बाद केंद्र सरकार आतंकवाद को समाप्त कसने के लिए कई बड़े कदम  उठा रही है।पुलवामा हमले से तार जुड़े होने के सबूत मिलने के बाद जम्मू-कश्मीर में काम कर रहे संगठन जमात- ए- इस्लामी  पर आतंकवाद निरोधक कानून  के तहत 5 साल तक के लिए प्रतिबंध लगाया है ।अब बारी हुर्रियत को प्रतिबंधित करने की है ।

रविवार को जमात  संगठन के 15 और सदस्यों को गिरफ्त में लिया गया है और इसकी 52 करोड़ की संपत्ति जब्त कर जांच की जा रही है. प्राप्त जानकारी मुताबिक 1 मार्च से अभी तक जमात  से जुड़े 370 से ज्यादा लोगों को गिरफ्त में लेकर पूछताछ की जा रही है. रविवार सुबह भी संगठन से जुड़े 15 अहम लोगों को हिरासत में लिया गया है.

किस-किस की हुई गिरफ्तारी:

जम्मू-कश्मीर पुलिस के मुताबिक रविवार को जमात-ए-इस्लामी (जम्मू कश्मीर) से जुड़े सैयदपुरा के पूर्व जिला अध्यक्ष बशीर अहमद लोन के साथ उनके अन्य साथियों अब्दुल हामिद फयाज, जाहिद अली, मुदस्सिर अहमद, गुलाम कादिर, मुदासिर कादिर, फयाज वानी, जहूर हकाक, अफजल मीर, शौकत शाहिद, शेख जाहिद, इमरान अली, मुश्ताक अहमद और अजक्स रसूल को गिरफ्तार किया गया. जांच एजेंसी अब तक इस संगठन की करीब 52 करोड़ की संपत्ति जब्त कर चुकी है. बता दें कि इस संगठन के जिन बड़े नेताओं की गिरफ्तारी हुई है, उनसे फिलहाल पूछताछ की जा रही है.

क्यों लगा बैन:

गृह मंत्रालय के सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक जमात-ए-इस्लामी (जेएंडके) पर आरोप है कि ये जम्मू कश्मीर में अलगाववादी विचारधारा और आतंकवादी मानसिकता के प्रसार के लिए जिम्मेदार प्रमुख संगठन है. जमात-ए-इस्लामी आतंकियों को ट्रेंड करना, उन्हें फंड करना, शरण देना, लॉजिस्टिक मुहैया करना आदि काम कर रहा था. इसे जमात-ए-इस्लामी जम्मू कश्मीर का मिलिटेंट विंग माना जाता है. वहीं इसे आतंकवादी घटनाओं के लिए जिम्मेदार माना जाता है. ये संगठन अलगाववादी, आतंकवादी तत्वों का वैचारिक समर्थन करता है. उनकी राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में भी भरपूर मदद देता रहा है.

जमात का इतिहास

जमात-ए-इस्लामी की नींव 1942 में पीर सैदउद्दीन ने रखी थी। कश्मीर में जमात और नेशनल कांफ्रेंस का ही सबसे बड़ा जनाधार माना जाता है। इसलिए खुद को सामाजिक और धार्मिक संगठन बताने वाले जमात की कश्मीर की सियायसत में भी महत्वपूर्ण भूमिका है। वर्ष 1971 में जमात ने कश्मीर में चुनाव लड़ा, लेकिन एक भी सीट नहीं जीत सकी थी। इसके बाद 1972 में जमात के पांच प्रत्याशी पहली बार विधायक बने थे। इनमें कट्टरपंथी नेता सैय्यद अली शाह गिलानी भी शामिल थे।

जमात ने 1975 में इंदिरा-शेख समझौते का खुलेआम विरोध किया था। इतना ही नहीं जमात को कश्मीर में युवाओं को देश विरोधी गतिविधियों के लिए बरगलाने और पाकिस्तानी नारों के समर्थक के तौर पर भी देखा जाता है। 1987 में जमात ने अन्य मजहबी संगठनों संग मिलकर मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट कश्मीर (मफ) बनाया था। आपातकाल के दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री शेख मुहम्मद अब्दुल्ला ने भी जमात देश विरोधी गैर कानूनी गतिविधियों में शामिल होने की वजह से प्रतिबंध लगाया था।

क्या है जमात-ए-इस्लामी

आजादी से पहले  एक संगठन का गठन किया गया, जिसका नाम जमात-ए-इस्लामी था. जमात-ए-इस्लामी का गठन इस्लामी धर्मशास्त्री मौलाना अबुल अला मौदूदी ने किया था और यह इस्लाम की विचारधारा को लेकर काम करता था. हालांकि आजादी के बाद यह कई अलग-अलग संगठनों में बंट गया, जिसमें जमात-ए-इस्लामी पाकिस्तान और जमात-ए-इस्लामी हिंद शामिल है. हालांकि जमात-ए-इस्लामी से प्रभावित होकर कई और संगठन भी बने, जिसमें जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश, कश्मीर, ब्रिटेन और अफगानिस्तान आदि प्रमुख हैं. जमात-ए-इस्लामी पार्टियां अन्य मुस्लिम समूहों के साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संबंध बनाए रखती हैं.

जमात-ए-इस्लामी (जम्मू-कश्मीर) की घाटी की राजनीति अहम भूमिका है और साल 1971 से इसने सक्रिय राजनीति में प्रवेश किया।पहले चुनाव में एक भी सीट हासिल नहीं करने के बाद आगे के चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया और जम्मू-कश्मीर की राजनीति में अहम जगह बनाई. हालांकि अब इसे जम्मू कश्मीर में अलगाववादी विचारधारा और आतंकवादी मानसिकता के प्रसार के लिए प्रमुख जिम्मेदार संगठन माना जाता है.

माना जाता है कि यह आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन का दाहिना हाथ है और हिजबुल मुजाहिदीन को जमात-ए-इस्लामी जम्मू कश्मीर ने ही खड़ा किया है. हिज्बुल मुजाहिदीन को इस संगठन ने हर तरह की सहायता की।

जमात-ए-इस्लामी कश्मीर घाटी में अलगावादियों और कट्टरपंथियों का प्रचार-प्रसार करता है। वह सैयद सलाहुद्दीन के आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन के लिए आतंकियों की भर्ती, धन और साजो-सामान में मदद करता है। अधिकारियों के मुताबिक,  दक्षिण कश्मीर में जमात-ए-इस्लामी के बड़ी संख्या में कार्यकर्ता हैं। हिजबुल मुजाहिदीन पाकिस्तान के सहयोग से प्रशिक्षण देने के साथ ही हथियारों की आपूर्ति कर रहा है। जमात-ए-इस्लामी पर कश्मीर घाटी में आतंकवादी गतिविधियों की सक्रिय अगुआई करने का आरोप है।

पाकिस्तान में छिपा सैयद सलाहुद्दीन पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठनों के संगठन यूनाइटेड जेहाद काउंसिल का सरगना है। जमात-ए-इस्लामी जेके पर पहले भी दो बार प्रतिबंध लगाया गया था। पहली बार 1975 में जम्मू-कश्मीर सरकार ने दो साल के लिए और दूसरी बार अप्रैल 1990 में केंद्र सरकार ने तीन साल के लिए प्रतिबंध लगाया था। दूसरी बार प्रतिबंध लगने के समय मुफ्ती मोहम्मद सईद केंद्रीय गृह मंत्री थे। वो बैन दिसंबर 1993 तक जारी रहा था.

4500 करोड़ की संपत्ति का मालिक

जमात घाटी के अंदर कई सारे स्कूल, मदरसे और मस्जिद को संचालित करती है. जमात के पास फिलहाल 4500 करोड़ रुपये से ज्यादा की संपत्ति है. इस संपत्ति में 400 स्कूल, 350 मस्जिद और एक हजार से अधिक मदरसे शामिल हैं. इन सबको चलाने के लिए पाकिस्तान, हुर्रियत कांफ्रेस के अलावा स्थानीय लोग चंदे के जरिए इसकी मदद करते हैं. जमात-ए-इस्लामी काफी लंबे समय से कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने की मुहिम भी चला रही है. उसका मानना है कि कश्मीर का विकास भारत के साथ रहकर नहीं हो सकता है. सूत्रों के मुताबिक, घाटी में कार्यरत कई आतंकी संगठन जमात के इन मदरसों व मस्जिदों में पनाह लेते रहे हैं।

महबूबा और उमर ने जताई नाखुशी

पीडीपी नेता और सूबे की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने केंद्र सरकार द्वारा जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध लगाए जाने के फैसले की आलोचना की थी. महबूबा ने कहा था कि सरकार जमात पर प्रतिबंध लगाने से पहले हिंदूवादी संगठनों पर बैन लगाए. क्या भाजपा का विरोध करना अब राष्ट्रद्रोह भी हो गया है. उधर नेशनल कान्फ्रेंस के उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्ला ने शनिवार को कहा कि केंद्र सरकार को जमात-ए-इस्लामी पर पाबंदी लगाने के फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए क्योंकि इस कदम से संगठन की गतिविधियां भूमिगत होने के अलावा कोई मकसद हल नहीं होगा.

उमर ने ट्वीट किया, “केंद्र सरकार को अपने हालिया फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए. जम्मू कश्मीर में 1996 से 2014/15 के बीच बिना इस तरह के प्रतिबंधों के भी हालात में तेजी से सुधार हुआ है. यह प्रतिबंध जमीनी स्तर पर किसी तरह का सुधार करेगा, इस बात का कोई आधार नहीं दिखता.” जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा कि राज्य में अशांति फैलने के बाद 1990 में पांच साल से अधिक समय के लिए संगठन पर प्रतिबंध लगाया गया था, लेकिन इस तरह की पाबंदी से कोई मकसद हल नहीं हुआ और कुछ हासिल नहीं हुआ.

जमात-ए-इस्लामी हिंद है अलग संगठन

बता दें कि ये जमात-ए-इस्लामी हिंद से बिल्कुल अलग संगठन है. इसका उस संगठन से कोई लेना देना नहीं है. साल 1953 में जमात-ए-इस्लामी ने अपना अलग संविधान भी बना लिया था. जमात-ए-इस्लामी (जम्मू-कश्मीर) घाटी में चुनाव लड़ता है, लेकिन जमात-ए-इस्लामी हिंद ऐसा संगठन है जो वेलफेयर के लिए काम करता है. जमात-ए-इस्लामी हिंद के देश में स्वास्थ्य और शिक्षा से जुड़े भी कई कार्य करता रहा है.

केंद्र सरकार ने भारत में आतंक को बढ़ावा देने वाले संगठनों पर शिकंजा कसना शुरू करने के अभियान मेंकट्टरपंथी संगठन जमात-ए-इस्लामी के खिलाफ बड़ी कार्रवाई की है।

सरकार ने शुक्रवार को इंस्पेक्टर जनरल और जिला मजिस्ट्रेटों को जमात-ए-इस्लामी के कार्यकर्ताओं को हिरासत में लेने की इजाजत दे दी थी। 350 से ज्यादा सदस्यों को शुक्रवार को गिरफ्तार किया गया था। एक अनुमान के मुताबिक, यह अलगाववादी संगठन कश्मीर घाटी में 400 स्कूल, 350 मस्जिदें और 1000 सेमिनरी चलाता है। सरकारी अधिकारियों का कहना है कि संगठन के पास 4,500 करोड़ रुपये की संपत्ति होने की संभावना है जिसकी जांच के बाद यह पता चलेगा कि यह वैध है या अवैध।

केंद्र सरकार ने जम्‍मू कश्‍मीर के अलगाववादी संगठन जमात-ए-इस्‍लामी पर पांच साल के लिए प्रतिबंध लगाया  है। जमात-ए-इस्लामी जम्मू-कश्मीर को कथित रूप से राष्ट्र विरोधी और विध्वंसकारी गतिविधियों के लिए गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत प्रतिबंधित किया गया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में सुरक्षा पर एक उच्च स्तरीय बैठक के बाद गृह मंत्रालय द्वारा प्रतिबंध को लेकर अधिसूचना जारी की गई।

जमात-ए-इस्लामी जम्मू-कश्मीर पर देश में राष्ट्र विरोधी और विध्वंसकारी गतिविधियों में शामिल होने और आतंकवादी संगठनों के साथ संपर्क में होने का आरोप है।सुरक्षा बलों ने पुलवामा में 14 फरवरी को हुए आतंकवादी हमले के बाद अलगाववादी ताकतों के खिलाफ कार्रवाई शुरू की थी तथा जमात-ए-इस्लामी जम्मू-कश्मीर के कई नेताओं और समर्थकों को गिरफ्तार किया था।

केंद्र सरकार द्वारा जारी अधिसूचना के मुताबिक, जमात-ए-इस्लामी अलगाववादी और देश विरोधी गतिविधियों में शामिल है। अधिसूचना में उसे नफरत फैलाने के इरादे से काम करने वाला एक संगठन बताया गया है। यही वजह है कि गृह मंत्रालय ने कानून-व्यवस्था और सुरक्षा को देखते हुए इस संगठन को प्रतिबंधित करने के आदेश दिए हैं।

पिछले दो सप्ताह से देश में बने आतंकी और युद्ध जैसे माहौल का स्थायी समाधान करने के लिए केंद्र सरकार ने देश के अंदर और बाहर दोनों मोर्चों पर सख्त रुख अख्तियार किया हुआ है।

भारत एक तरफ जहां पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर घेरे हुए है, वहीं पुलवामा हमले के बाद से लगातार आतंकी संगठनों और उन्हें बढ़ावा देने वाले अलगवादियों पर भी शिकंजा कस रहा है। जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध लगाने के बाद अनुमान लगाया जा रहा है कि केंद्र सरकार अब ऐसे कुछ और संगठनों पर जल्द कार्रवाई कर सकती है।

केंद्र द्वारा प्रतिबंध लगाए जाने के बाद अब गिरफ्तारियों का सिलसिला और तेज होने के साथ ही जमात के संस्थानों पर तालाबंदी भी शुरू हो गई है ।

22 फरवरी को गिरफ्तार हुए थे अलगाववादी नेता

पुलवामा हमले के बाद कश्मीर के अलगाववादी नेताओं के खिलाफ कड़ा रुख अख्तियार करते हुए पिछले सप्ताह (22 फरवरी 2019) को पुलिस ने जम्मू-कश्मीर लिब्रेशन फ्रंट और जमात-ए-इस्लामी के 150 से अधिक कार्यकर्ताओं को हिरासत में ले लिया था। जमात पर ये अब तक की सबसे बड़ी कार्रवाई रही थी । इस कार्रवाई में जमात-ए-इस्लामी प्रमुख अब्दुल हामिद फयाज सहित दर्जनों नेता शामिल थे।

हिजबुल का दाहिना हाथ माना जाता है जमात-ए-इस्लामी

1990 के दशक में जब कश्मीर में आतंकवाद चरम पर था। उस समय अलगाववादी संगठन जमात-ए-इस्लामी को आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन का दाहिना हाथ माना जाता था। उस वक्त जमात-ए-इस्लामी, हिजबुल की राजनीतिक शाखा के तौर पर काम करता था। इसके विपरीत जमात-ए-इस्लामी खुद को हमेशा सामाजिक और धार्मिक संगठन बताता रहा है। आज भी जमात का एक एक बड़ा कैडर, हिजबुल से जुड़ा हुआ है।

इसलिए जमात पर लगा प्रतिबंध

जमात ने ही कश्मीरी युवाओं में अलगाववाद और मजहबी कट्टरता के बीज बोए हैं। बीते चार सालों के दौरान जमात के कई नेता कश्मीर के विभिन्न जगहों पर आतंकियों का महिमामंडन करते भी पकड़े गए हैं।

कट्टरपंथी सैय्यद अली शाह गिलानी, मोहम्मद अशरफ सहराई, मसर्रत आलम, शब्बीर शाह, नईम खान समेत शायद ही ऐसा कोई अलगाववादी होगा, जो जमात के कैडर में न रहा हो। यही बात कश्मीर में सक्रिय मुख्यधारा के कई वरिष्ठ नेताओं पर भी लागू होती है। कई पूर्व सुरक्षा अधिकारी और कश्मीर मामलों के विशेषज्ञ भी मानते हैं कि कश्मीर में आतंकवाद की रीड़ के तौर पर जमायत-ए-इस्लामी किसी न किसी तरीके से काम करती है। इसीलिए केंद्र सरकार ने जमात पर प्रतिबंध लगाया है।

जमात के बाद अब बारी हुर्रियत की

जमात की तरह ही ऑल पार्टीज हुर्रियत कांफ्रेंस (एपीएससी) यानी हुर्रियत पर भी घाटी में अलगाववाद को बढ़ावा देने और देश विरोधी गतिविधियों में शामिल रहने के आरोप हमेशा से लगते रहे हैं। प्रमुख हुर्रियत और अलगाववादी नेता सैय्यद अली शाह गिलानी भी जमात से जुड़े रहे हैं और उससे चुनाव भी लड़ चुके हैं। अब वह इससे अलग हो चुके हैं।

माना जा रहा है कि जमात पर शिकंजा करने के बाद अब बारी हुर्रियत की है। हुर्रियत का गठन 13 जुलाई 1993 को हुआ था। हुर्रियत, उन सभी पार्टियों का एक संगठन है जिन्होंने 1987 में नेशनल कांफ्रेंस व कांग्रेस गठबंधन के खिलाफ चुनाव लड़ा था। आरोप है कि हुर्रियत घाटी में पनप रहे आतंकी आंदोलन को राजनीतिक चेहरा देती रही है। इसके नेता कश्मीर की आजादी या कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा बनाने के लिए आंदोलन करते रहे हैं।

हुर्रियत का हिस्सा हैं ये संगठन

हुर्रियत में सात अलग-अलग पार्टियां जमात-ए-इस्लामी, आवामी एक्शन कमेटी, पीपुल्स लीग, इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन, मुस्लिम कांफ्रेंस, जेकेएलएफ और पीपुल्स कांफ्रेंस शामिल हैं। सातों संगठनों के प्रमुख या प्रतिनिधि को हुर्रियत की एग्जिक्यूटिव काउंसिल में बतौर सदस्य शामिल किया गया है। हुर्रियत की एक 21 सदस्यीय वर्किंग कमेटी और 23 सदस्यों वाली जनरल काउंसिल भी है। इसके दो सदस्यों की पूर्व में हत्या भी हो चुकी है। मई 2002 में पीपुल्स कांफ्रेंस के मुखिया रहे अब्दुली गनी लोन को आतंकियों ने मार दिया था। वह पीपुल्स कांफ्रेंस के वर्तमान मुखिया सज्जाद लोन के पिता थे। सज्जाद, भाजपा और पीएम नरेंद्र मोदी के समर्थक माने जाते हैं। अगस्त 2008 में शेख अजीज भी पुलिस फायरिंग में मारे गए थे।

हुर्रियत पर इसलिए लगेगा प्रतिबंध:

इसे ध्यान में रखते हुए केंद्र  सरकार जम्मू-कश्मीर में फिर बड़ा कदम उठा सकती है। जमात-ए-इस्लामी को बैन करने के बाद हुर्रियत पर भी बैन लगा सकती है।

सूत्रों के हवाले से खबर आ रही है कि मोदी सरकार हुर्रियत को बैन करने पर विचार कर रही है।

गौरतलब है कि पुलवामा आतंकी हमले के बाद पिछले दिनों सरकार ने यासीन मलिक, गिलानी समेत 18 अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा वापस ले ली थी।

जम्मू-कश्मीर सरकार ने घाटी के 18 हुर्रियत नेताओं और 160 राजनीतिज्ञों को दी गई सुरक्षा वापस ली है। इसके साथ ही 160 से ज्यादा राजनीतिज्ञों का सुरक्षा कवच भी छीन लिया गया है।

जमात-ए-इस्लामी संगठन हिज्बुल मुजाहिदीन के आतंकवादियों को कश्मीर घाटी में बड़े स्तर पर फंडिंग करता था। ऐसी तमाम जानकारियों के बाद गृह मंत्रालय ने कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी की बैठक के बाद जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध लगा दिया।

क्‍या है हुर्रियत कांफ्रेंस

13 जुलाई 1993 को कश्‍मीर में अलगाववादी आंदोलन को राजनीतिक रंग देने के मकसद से ऑल पार्टीज हुर्रियत कांफ्रेंस एपीएससी का गठन हुआ था। यह संगठन उन तमाम पार्टियों का एक समूह था, जिसने 1987 में हुए चुनावों में नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस के गठबंधन के खिलाफ आए थे। हुर्रियत कॉन्फ्रेंस मुख्यत: जम्मू-कश्मीर में चरमपंथी संगठनों से संघर्ष कर रही भारतीय सेना की भूमिका पर सवाल उठाने के अलावा मानवाधिकार की बात करती है।

यह गठबंधन भारतीय सेना की कार्रवाई को सरकारी आतंकवाद का नाम देती है। 15 अगस्त को भारत के स्वतंत्रता दिवस और 26 जनवरी को भारत के गणतंत्र दिवस के समारोहों का बहिष्कार भी करती आई है। हुर्रियत कॉन्फ्रेंस ने अभी तक एक भी विधानसभा या लोकसभा चुनाव में हिस्सा नहीं लिया है। हुर्रियत कॉन्फ्रेंस ख़ुद को कश्मीरी जनता का असली प्रतिनिधि बताती है।

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