पणजी, 19 नवंबर । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समुद्री संसाधनों के जरिये अर्थव्यवस्था को मजबूती देने की संभावनाएं तलाशने के आह्वान के बाद पूरे विश्व में ‘ब्लू इकोनोमी’ की चर्चा ज़ोरों पर है और सरकार ने बड़ा बजट आवंटित करके इस दिशा में ठोस कदम उठाना शुरू कर दिया है।attacknews
देश की बढ़ती जनसंख्या और जमीन पर कम होती संभावनाओं के बीच अब दुनिया के बाकी देशों की तरह भारत ने भी समुद्री शोध से अधिक राजस्व हासिल करने के बारे में सोचना और उस पर काम करना शुरु कर दिया है।
ब्लू इकोनोमी या समुद्री अर्थव्यवस्था का सीधा मतलब है कि समुद्र में व्याप्त खनिज पदार्थों, गैस, तेल एवं अन्य उपयोगी तत्वों का इस्तेमाल अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में हो।
गोवा के डोना पाउला स्थित भारत समुद्री विज्ञान संस्थान (एनआईओ) में ‘डीप सी मिशन’ समुद्र की गहराई में तत्वों की पहचान के काम से जुड़े वैज्ञानिक डॉ. सनिल कुमार ने बताया कि देश के विभिन्न शोध संस्थानों में वैज्ञानिकों ने 1981 से ही समुद्र के गहरे तल में उपस्थित तत्वों की पहचान का काम शुरु कर दिया था। “ ब्लू इकोनोमी” पर देश में 40 वर्ष से शोध हो रहा था लेकिन तकनीक, राजस्व और संसाधनों की कमी के कारण वैज्ञानिक इस दिशा में आगे नहीं बढ़ सके ।”
समय की मांग और केंद्र सरकार के समुद्र की संपत्ति को राजस्व में बदलने की तत्परता ने समुद्री शोध को बढ़ावा दिया है। दुनिया के बाकी देशों से इतर भारत फिलहाल अपनी समुद्री सीमा के भीतर ही शोध कर रहा है। देश में 75 जलयात्राओं, समुद्र से लगभग 11000 नमूने इकठ्ठा करने और 30 लाख वर्ग किलोमीटर समुद्री क्षेत्र के सर्वेक्षण के बाद 75 हजार वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र से गहरे पानी में उपस्थित तत्वों, गैस, तेल, खनिज पदार्थों, कीमती पत्थरों आदि की खोज पर काम शुरू हो चुका है जो भविष्य में आय का सबसे बड़ा स्रोत साबित होगा। खनिज पदार्थों की निकासी के लिये पहली बार समुद्र में खनन की नयी तकनीक विकसित की गयी है।
हिंद महासागर के मध्य क्षेत्र में समुद्री विज्ञान संस्थान अपने ‘डीप सी मिशन’ पर काम शुरू कर चुका है जिसे पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के तत्वाधान में चलाया जा रहा है। दुनिया के कई देश अपनी सीमा के बाहर अंतरराष्ट्रीय जलमार्ग में भी इस पर काम कर रहे हैं। विदेशी जल में नियंत्रण के लिये बाकायदा अंतरराष्ट्रीय समुद्री तल संघ(आईएसए) का गठन किया गया है। फिलहाल भारत अपनी सीमा में ही इसे आगे बढ़ा रहा है।
गहरे समुद्र में सर्वेक्षण का काम भले ही व्यापक स्तर पर हुआ हो , लेकिन अभी तक दुनिया के किसी देश ने गहरे पानी में खनन की प्रक्रिया शुरू नहीं की है। भारत दुनिया के उन आठ देशों में शामिल है , जिसे आईएसए ने अंतर्राष्ट्रीय समुद्री सीमा में एक लाख 50 हजार वर्ग किलोमीटर में सर्वेक्षण का विशेष अधिकार दिया है जिसमें से 75 हजार वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में भारत को खनन की अनुमति होगी। भारत जहां हिंद महासागर में काम कर रहा है वहीं फ्रांस, रूस, जापान, चीन, जर्मनी, कोरिया जैसे देश प्रशांत महासागर में समुद्र के संसाधनों को खोजने के अभियान में जुटे हैं।आईएसए में पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय केंद्र सरकार की नोडल एजेंसी के रूप में काम कर रहा है।
डाॅ. सनिल ने बताया कि देश में डीप सी मिशन के लिये मुख्य रूप से वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर)-राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान(एनआईओ-गोवा), राष्ट्रीय समुद्र तकनीक संस्थान(चेन्नई), राष्ट्रीय धातुविज्ञान प्रयोगशाला(जमशेदपुर) और पदार्थ एवं पदार्थ तकनीक संस्थान(भुवनेश्वर) काम कर रहे हैं।
उन्होंने बताया कि ब्लू इकोनोमी परियोजना को मुख्य तौर पर दो भागों में बांटा गया है जिसमें गहराई में समुद्र तल से खनन और समुद्री तटवर्ती अभियान (डीप ओशन मिशन और कोस्टल मिशन) शामिल है। सरकार ने डीप सी मिशन के लिये 5000 करोड़ रूपये का बजट रखा है जिसकी समय सीमा तीन वर्ष है। डीप सी मिशन में समुद्री जैव विविधता, जीवित एवं निर्जीव पदार्थों के सर्वेक्षण, समुद्र से दवाओं की उत्पत्ति, समुद्र से भोजन प्राप्त करने पर सर्वेक्षण शामिल हैं जबकि समुद्री तटवर्ती अभियान के तहत तटों का विकास और उन्हें मॉडल तटों के रूप में विकसित करना, तटवर्ती क्षेत्रों में बदलाव, तटवर्ती क्षेत्रों में बढ़ते प्रदूषण से आने वाले बदलावों के सर्वेक्षण शामिल हैं।
डीप सी मिशन के लिये काम कर रहे एनआईओए वैज्ञानिक ने कहा“ हम पिछले काफी समय से उन क्षेत्रों की पहचान का काम कर रहे हैं , जहां पर कीमती खनिज पदार्थ उपलब्ध हो सकते हैं। महाराष्ट्र के रत्नागिरी क्षेत्र, केरल तथा विशाखापत्तनम में अहम खनिजों की पहचान की गयी है।” उन्होंने कहा कि कुछ समय पहले तक समुद्र में गहराई से खनन के लिये कंपनियों ने दिलचस्पी नहीं दिखाई थी लेकिन अब इसके भविष्य में संभावनाओं के चलते कई कंपनियां आगे आयी हैं और एक ब्लॉक को खनन के लिये लीज़ पर दिया गया है।
समुद्र तल में जिन कीमती खनिज पदार्थों की खोज की जा रही है उनमें अधिकतर ऐसे हैं जो भविष्य में धातुओं का विकल्प होंगे। इसमें प्लेटिनम, मैग्नाइट, जिरकोन, रूताइल, इल्मेनाइट, गार्नेट, कोर्नेंडम, कोबाल्ट, निकिल, कॉपर आदि शामिल हैं। रत्नागिरी में इल्मेनाइट, केरल के समुद्र में मोनाजाइट और जिरकॉन और विशाखापत्तनम में गार्नेट की प्रचुर मात्रा के भंडारों की पहचान की गयी है।
संयुक्त राष्ट्र की मछलीपालन और समुद्री जीवन पर 2014 की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की 10-12 फीसदी जनसंख्या को समुद्र रोजगार दिला सकता है जिसमें 90 फीसदी नौकरियां विकासशील देशों में छोटे मछलीपालकों के लिये पैदा की जा सकती हैं।
गोवा में स्थित राष्ट्रीय समुद्र संस्थान में इस दिशा में सबसे अधिक काम किया गया है और राज्य के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर की मानें तो देश में समुद्री अर्थव्यवस्था की संभावनाएं कमाल की हैं। उनका कहना है “ भारत में समुद्र से हम बहुत राजस्व हासिल कर सकते हैं और यदि हमने अपने सागर में मौजूद कीमती पत्थरों और खनिजों को खोज लिया तो भारत दुनिया का सबसे अमीर देश होगा।”
केंद्रीय विज्ञान एवं अनुसंधान मंत्री डाॅ. हर्षवर्धन ने ब्लू इकोनोमी के सवाल पर कहा ,“ हम ब्लू इकोनोमी को विकसित करने के लिये काम कर रहे हैं। समुद्र में अपार संभावनाएं हैं जिनमें समुद्री ऊर्जा, मछली उत्पादन, खनिज पदार्थों के खनन के अलावा समुद्री जल को पीने योग्य बनाने और कोस्टल मिशन के तहत तटों को विकसित करने पर एनआईओ जैसी संस्था काम कर रही है।” उन्होंने बजट को लेकर कहा“ यह एक बडे स्तर की योजना है और जो भी काम होगा उसके लिये सरकार धन उपलब्ध करायेगी। विदेशी जल में खनन की अनुमति के लिये संबंधित एजेंसियां काम कर रही हैं और भारत भविष्य में विश्व गुरू बनने की ओर अग्रसर होगा।”
वैज्ञानिकों का यह प्रयोग अभी शोध स्तर पर ही पहुंचा है और जमीनी स्तर पर इसके हकीकत बनने में समय लगेगा। वहीं सवाल यह भी है कि आखिरकार जमीन पर खनन से हो रही तबाही समुद्र के भीतर कितना नुकसान पहुंचायेगी। इस बारे में पूछने पर एनआईओ के वरिष्ठ वैज्ञानिक राहुल शर्मा ने कहा , “ खनन करने से जमीन पर नुकसान होता है लेकिन समुद्र में खनन की प्रक्रिया बिल्कुल अलग होगी जहां पर खुदाई के बजाय तल में फैले खनिजों को एकत्र किया जाएगा। समुद्र के जीव-जन्तुओं पर खनन का नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ेगा , लेकिन उसके कुछ प्रतिशत प्रभाव से इंकार भी नहीं किया जा सकता है।”
ग्लोबल वार्मिंग, समुद्र के बढ़ते जल स्तर और उसके तापमान के बढ़ने को लेकर जहां दुनियाभर में एक ओर चिंता है तथा इसके लिये निरंतर कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिये विकसित और भारत जैसे विकासशील देशों पर दबाव बढ़ रहा है उस स्थिति में समुद्र को राजस्व का स्त्रोत भविष्य में नयी परेशानियां खड़ी कर सकता है जिसके समाधान के उपायों पर भी अभी से विचार करना होगा।