मुम्बई/मऊ(उत्तरप्रदेश) 09 मार्च ।रंग और उमंग के त्योहार होली पर आधारित गीत श्रोताओं को बेहद पसंद आते हैं।
निर्माता निर्देशक महबूब खान की 1957 में प्रदर्शित फिल्म ‘मदर इंडिया’ संभवतः पहली फिल्म थी जिसमें होली का गीत ‘होली आई रे कन्हाई’ फिल्माया गया था। नरगिस, राजेन्द्र कुमार और सुनील दत्त अभिनीत इस फिल्म में होली के इस गीत का विशिष्ट स्थान आज भी बरकरार है। इसके बाद वर्ष 1959 में प्रदर्शित फिल्म ‘नवरंग’ में भी होली का गीत ‘अरे जा रे हट नटखट’ फिल्माया गया। इस गीत से जुड़ा रोचक तथ्य है कि इसमें अभिनेत्री संध्या को गाने के दौरान लड़के और लड़की के भेष में एक साथ दिखाया गया था। सी. रामचंद्र के संगीत निर्देशन आशा भोंसले द्वारा गए भरत व्यास रचित इस सुंदर गीत को सिने प्रेमी आज भी नहीं भूल पाये है।
सत्तर के दशक में कई फिल्मों में होली पर आधारित गीत लिखे गये। इनमें राजेश खन्ना-आशा पारेख अभिनीत फिल्म कटी पतंग प्रमुख है। आर. डी. बर्मन के संगीत निर्देशन में किशोर कुमार और लता मंगेशकर की आवाज में रचा बसा यह गीत ‘आज ना छोड़ेगे बस हमजोली खेलेंगे हम होली’ में होली की मस्ती को दिखाया गया है। इसी दशक में रमेश सिप्पी की सुपरहिट फिल्म ‘शोले’ में भी होली से जुड़ा गीत फिल्माया गया था। आर. डी. बर्मन के संगीत निर्देशन में
अभिनेत्री हेमा मालिनी पर फिल्माया यह गीत होली के दिन दिल खिल जाते हैं सिने दर्शक आज भी नही भूल पाये है।
निर्माता-निर्देशक यश चोपड़ा अपनी फिल्मों में होली से जुड़े गीत अक्सर रखते आये है। इनमें अस्सी के दशक में अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म सिलसिला खास तौर पर उल्लेखनीय है। शिव-हरि के संगीत निर्देशन में सुप्रसिद्ध कवि हरिवंश राय बच्चन रचित गीत ‘रंग बरसे भींगे चुनर वाली’ गीत होली गीतों में अपना विशिष्ट मुकाम रखता है। इस गीत के बिना होली गीतों की कल्पना ही नहीं की जा सकती है।
इसके बाद यश चोपड़ा समय-समय पर अपनी फिल्मों में होली से जुड़े गीत रखते रहे। इनमें हृदयनाथ मंगेशकर के संगीत निर्देशन में 1984 में प्रदर्शित फिल्म ‘मशाल’ में अनिल कपूर पर फिल्माया गीत ‘ओ देखो होली आई’ और 1993 में ‘अंग से अंग लगाना सजन हमें ऐसे रंग लगाना’ श्रोताओं के बीच काफी लोकप्रिय हुआ था।
नब्बे के दशक के बाद हिंदी फिल्मों में होली गीत रखने की परंपरा काफी हद तक कम हो गयी। वर्ष 2000 में यश चोपड़ा के बैनर तले बनी फिल्म ‘मोहब्बतें’ में शाहरुख खान पर ‘सोनी सोनी अंखियों वाली’ होली गीत फिल्माया गया। इसके बाद अमिताभ बच्चन की 2003 में रवि चोपड़ा के निर्देशन में प्रदर्शित फिल्म ‘बागबान’ में भी सुपरस्टार अमिताभ बच्चन पर ‘होली खेले रघुवीरा अवध में’ फिल्माया गया।
इसी तरह हिंदी फिल्मों में समय-समय पर होली पर आधारित कई गीत फिल्माये गये। इन गीतों में तन रंग लो जी आज मन रंग लो, होली आई रे, दिल में होली जल रही है, आओ रे आओ खेलो होली बिरज में, जोगी जी धीरे धीरे, मल के गुलाल मोहे आई होली आई रे, अपने रंग में रंग दे मुझको, हर रंग सच्चा रे सच्चा, लेटस प्ले होली, बलम पिचकारी जो तूने मुझे मारी जैसे कई गीत शामिल है ।
आधुनिकता की दौड़ में नही सुनाई पड़ रही है पारंपरिक होली गीतों की मधुर आवाज:
मऊ (उत्तरप्रदेश),से खबर है कि,आधुनिकता की दौड़ में होली की पारंपरिक कर्णप्रिय गीतों की मधुर आवाज धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है।
आधुनिकता की दौड़ में जहां तमाम लोक परंपराएं विधाएं एवं संस्कृतियों का लोप हुआ है वही देश व खासकर पूर्वी भारत के सबसे बड़ा त्योहार होली अब सिमटता सा नजर आने लगा है। पाश्चात्य संस्कृति आधुनिक समाज में गहरी पैठ बना चुकी है। इसमें हमारे त्योहार भी अछूते नहीं रहे। होली के दौरान पारंपरिक कर्णप्रिय गीतों की मधुर आवाज धीरे-धीरे गांव घरों में कम सुनाई पड़ने लग गयी है।
एकता और भाईचारा के प्रतीक इस त्योहार में अब पौराणिक प्रथाएं पूरी तरह गौण हो चुकी हैं। इसके स्वरूप और मायने भी बदल चुके हैं। बसंत पंचमी के दिन से शुरू होकर लगातार 40 दिन तक चलने वाले इस लोक पर्व का त्योहार होली अब महज कुछ घंटों में सिमटकर रह गया। यह त्योहार पहले होलिका दहन के एक हफ्ते बाद बुढ़वा मंगल तक मनाए जाने का प्रावधान रहा करता था।
माघ माह में शुक्ल पक्ष की बसंत पंचमी श्री बसंत उत्सव के रूप में शुरू यह ऋतु फागुन मास की पूर्णिमा तक चलता है। इस दौरान लगभग एक दशक पूर्व तक गांव की गलियां तक गुलजार रहा करते थे। बसंत पंचमी के दिन से लगातार 40 दिनों तक लोग ढोल मजीरा की थाप पर पारंपरिक फाग गीत के साथ देर रात तक उत्सव मनाया करते थे। वसंतोत्सव का धुन ऐसा कि क्या बच्चे, क्या बूढ़े सब एक रंग में रंगने को आतुर रहते थे। परंपरागत गीतों के साथ “होली खेले रघुवीरा अवध में” इत्यादि के साथ रम जाते थे। आधुनिकता की ऐसी बयार बही कि शहर से लेकर गांव तक लोग इसकी आधी में डगमगा से गए।
प्रख्यात लोकगीत गायक मोहन भारती ने कहा कि आने वाली पीढ़ियों को हमारी परंपरा लोक संस्कृति गूगल से सर्च करना पड़ रहा है, जबकि यह हमारी पूंजी रही है। गांव गांव में होने वाली होली की हुड़दंग में भी प्रेम का वास नजर आता था जबकि आज औपचारिकता का त्यौहार बनकर रह गया जो काफी तकलीफ देह साबित होता है।
सामाजिक कार्यकर्ता शिक्षक शिवशरन वर्मा ने कहा कि एक जमाना था जब होली के माहौल में ऊंच-नीच छोटे-बड़े का भेद मिट जाता था। गांव के चौक के सहन में एक साथ बैठकर झाल मजीरा ढोल के साथ होली गीत का आनंद लिया था। खास बात यह कि परिजनों को खाना खिलाने के बाद गांव की महिलाएं भी प्रेम पूर्वक बैठ कर गीत सुना करती थी। आज तो होली के नाम पर घरों से निकलना भी दुरूह हो गया है।
उन्होंने कहा कि आधुनिकता की दौड़ में सबसे अधिक नुकसान भारतीय लोक परंपराओं उठाना पड़ा है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण होली का त्योहार है जो कभी 40 दिनों तक चलता रहा अब महज औपचारिकता के रूप में मनाया जाता है। एक समय था जब होली के हफ्तों बाद बुढ़वा मंगल पर चैता गीत के साथ त्यौहार का समापन माना जाता था आज वही त्यौहार अपने अस्तित्व की दुआएं देता नजर आ रहा है। होली के मौके पर पारंपरिक गीत गाने की प्रथा अब समाप्त हो चुकी है। इसकी जगह अब द्विअर्थी और फूहड़ गीतों ने ले लिया है। इन अश्लील गीतों के कारण होली को अब अलग नजरिये से देखा जाने लगा है।
नगर निवासी भूतपूर्व शिक्षक रमाशंकर पांडेय ने बीते दिनों को याद कर भावुक होते हुए कहा कि एक समय था जब होली से महीनों पूर्व झांझ मजीरा के साथ गांव के सभी छोटे-बड़े एक साथ होलीआरी में रम जाते थे। प्रेम सद्भाव आपसी भाईचारा का प्रत्यक्ष प्रमाण यह त्योहार हमारी एकता की मिसाल पेश करता था। आज लोक परंपराओं से रचित गीतों का स्थान फूहड़ गीतों ने ले लिया लोगों का घरों से निकलना मुश्किल हो गया है।