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अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को समाप्त करने के बाद लिखा गया पूर्व केन्द्रीय मंत्री अरुण जेटली का अंतिम लेख attacknews.in

अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को समाप्त करने के बाद लिखा गया पूर्व केन्द्रीय मंत्री अरुण जेटली का अंतिम लेख : इसे attacknews.in पर प्रसारित किया गया था,उनके निधन के बाद पुनः प्रसारित किया जा रहा है-

प्रधानमंत्री श्री नरेन्‍द्र मोदी और गृह मंत्री श्री अमित शाह ने असंभव को संभव कर दिखाया

लेखक- अरुण जेटली
पूर्व वित्त मंत्री


संसद का वर्तमान सत्र उपलब्धियों की दृष्टि से अत्‍यंत सफल रहा है। दरअसल, इस दौरान कई ऐतिहासिक विधेयक पारित किए गए हैं। तीन तलाक कानून, आतंक पर कठोर प्रहार करने वाले कानून और अनुच्‍छेद 370 पर निर्णय – ये सभी निश्चित तौर पर अप्रत्‍याशित हैं।

आम धारणा कि अनुच्‍छेद 370 पर भाजपा द्वारा किया गया वादा सिर्फ एक नारा है, जिसे पूरा नहीं किया जा सकता है, पूरी तरह से गलत साबित हुई है। सरकार की नई कश्‍मीर नीति पर आम जनता की ओर से जो जबर्दस्‍त समर्थन मिल रहा है, उसे देखते हुए कई विपक्षी दलों ने आम जनता के सुर में सुर मिलाना ही उचित समझा है। यही नहीं, राज्‍यसभा में इस निर्णय का दो तिहाई बहुमत से पारित होना निश्चित तौर पर कल्‍पना से परे है। मैंने इस निर्णय के असर के साथ-साथ जम्‍मू-कश्‍मीर के मुद्दे को सुलझाने के अन‍गिनत विफल प्रयासों के इतिहास का विश्‍लेषण किया।

विफल प्रयासों का इतिहास

विलय के प्रस्‍ताव (इंस्‍ट्रूमेंट ऑफ एक्‍सेशन) पर अक्‍टूबर, 1947 में हस्‍ताक्षर किए गए थे। पश्चिमी पाकिस्‍तान से लाखों की संख्‍या में शरणार्थी पलायन कर भारत आ गए थे। पंडित नेहरू की सरकार ने उन्‍हें जम्‍मू और कश्‍मीर में बसने की अनुमति नहीं दी थी। पिछले 72 वर्षों से कश्‍मीर पाकिस्‍तान का अपूर्ण एजेंडा रहा है। पंडित जी ने हालात का आकलन करने में भारी भूल की थी। वह जनमत संग्रह के पक्ष में थे और उन्‍होंने संयुक्‍त राष्‍ट्र को इस मुद्दे पर विचार-विमर्श करने की अनुमति दे दी। उन्‍होंने शेख मोहम्‍मद अब्‍दुल्‍ला पर भरोसा करके उन्‍हें इस राज्‍य की बागडोर सौंपने का निर्णय लिया। फिर इसके बाद वर्ष 1953 में उनका विश्‍वास शेख साहब पर से उठ गया और उन्‍हें जेल में बंद कर दिया।

दरअसल, शेख ने इस राज्‍य को अपने व्‍यक्तिगत साम्राज्‍य में तब्‍दील कर दिया था। उस समय जम्‍मू-कश्‍मीर राज्‍य में कोई कांग्रेस पार्टी नहीं थी। कांग्रेसी दरअसल नेशनल कांफ्रेंस के सदस्‍य थे। कांग्रेस की एक सरकार नेशनल कांफ्रेंस के नाम से बना दी गई थी। इसके प्रमुख बख्‍शी गुलाम मोहम्‍मद थे। नेशनल कांफ्रेंस के नेतृत्‍व ने ‘जनमत संग्रह मोर्चा’ के नाम से एक अलग समूह बना दिया था। लेकिन नेशनल कांफ्रेंस का रूप धारण कर कांग्रेस आखिरकार चुनाव कैसे जीत पाती? वर्ष 1957, 1962 और 1967 के चुनावों में नि:संदेह धांधली हुई थी। अब्‍दुल खालिक नामक अधिकारी, जो श्रीनगर और डोडा दोनों के ही कलक्‍टर थे, को रिटर्निंग ऑफिसर बनाया गया था। इस अधिकारी ने घाटी में किसी भी विपक्षी उम्‍मीदवार का नामांकन नहीं होने दिया था। इन तीनों चुनावों में ज्‍यादातर कांग्रेसी निर्विवादित ही निर्वाचित हो गए थे। कश्‍मीर घाटी की जनता का केन्‍द्र सरकार में कोई विश्‍वास नहीं रह गया था।

विशेष दर्जा देने और राज्‍य की बागडोर शेख साहब को सौंपने तथा बाद में कांग्रेस सरकारों के सत्‍तारूढ़ होने का यह प्रयोग एक ऐतिहासिक भूल साबित हुआ। पिछले सात दशकों के इतिहास से यह पता चलता है कि इस अलग दर्जे की यात्रा अलगाववाद की ओर रही है, न कि एकीकरण की ओर। इससे अलगाववादी भावना विकसित हो गई। पाकिस्‍तान ने इस हालात से लाभ उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
श्रीमती इंदिरा गांधी ने इसके बाद शेख साहब को रिहा करने और बाहर से कांग्रेस का समर्थन सुनिश्चित कर एक बार फिर उनकी सरकार बनाने का एक प्रयोग किया। यह प्रयोग वर्ष 1975 में किया गया था।

हालांकि, कुछ ही महीनों के भीतर शेख साहब के सुर बदल गए और श्रीमती गांधी को यह स्‍पष्‍ट रूप से अहसास हो गया कि उन्‍हें नीचा दिखाया गया है।

शेख साहब के निधन के बाद इसकी बागडोर नेशनल कांफ्रेंस के वरिष्‍ठ नेताओं जैसे कि मिर्जा अफजल बेग को सौंपी जानी चाहिए थी, लेकिन शेख साहब कश्‍मीर को अपनी पारिवारिक जागीर में तब्‍दील करना चाहते थे। फारूक अब्‍दुल्‍ला इस तरह से शेख साहब के उत्‍तराधिकारी के रूप में मुख्‍यमंत्री बन गए।
मुख्य धारा की पार्टी को मजबूती प्रदान करने की जगह 1984 के आरंभ में कांग्रेस ने सरकार को अस्थिर कर दिया। शेख साहब के दामाद गुल मोहम्मद की अगुवाई में नेशनल कांफ्रेंस के बागी गुट के साथ मिलकर और जोड़-तोड़ करके रातों-रात मुख्यमंत्री बदल दिया गया। शाह को मुख्यमंत्री बनाया गया।

जाहिर तौर पर नया मुख्यमंत्री हालात पर काबू नहीं पा सका। उसके बाद के वक्तव्यों से सीधे तौर पर साबित होता था कि उनकी हमदर्दी अलगाववादियों के साथ है। 1987 में श्री राजीव गांधी ने एक बार फिर से नीतियों को बदल दिया और फारूख अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। चुनाव में भी धांधली हुई। कुछ उम्मीदवार जिन्हें जोड़-तोड़ करके हराया गया था, वे बाद में अलगाववादी और तो और आतंकवादी तक बन गये।

1989-90 तक, हालात काबू से बाहर हो गये तथा अलगाववाद के साथ-साथ आतंकवाद की भावना जोर पकड़ने लगी। कश्मीरी पंडित जो कि कश्मीरियत का अनिवार्य भाग थे, उन्हें इस तरह के अत्याचार बर्दाश्त करने पड़े, जिस तरह के अत्याचार अतीत में केवल नाजियों ने ही किये थे। जातीय संहार किया गया और कश्मीरी पंडितों को घाटी से बाहर खदेड़ दिया गया।

जब अलगाववाद और उग्रवाद जोर पकड़ रहे थे, विभिन्न राजनीतिक दलों की अगुवाई वाली केन्द्र सरकार ने तीन नये प्रकार के प्रयास किये। उन्होंने अलगाववादियों के साथ बातचीत करने की कोशिश की, जो व्यर्थ साबित हुई। सरकारों द्वारा कश्मीर समस्या को द्विपक्षीय मामले के रूप में पाकिस्तान के साथ बातचीत करके हल करने की कोशिश की गई। सरकारें समस्या का समाधान तलाशने के लिए समस्या के जन्मदाता के साथ बातचीत कर रही थीं।

बातचीत का प्रयोग विफल होने के बाद केन्द्र की बहुत सी सरकारों ने व्यापक राष्ट्रीय हित में जम्मू कश्मीर की तथाकथित मुख्यधारा वाली पार्टियों के साथ समायोजन करने का फैसला किया। दो राष्ट्रीय दलों ने एक अवस्था पर दो क्षेत्रीय पार्टियों – पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस पर भरोसा करने का प्रयोग किया। उन्हें सत्ता पर आसीन कराया ताकि क्षेत्रीय पार्टियों की मदद से वे जनता के साथ संवाद कर सकें। हर मौके पर यह प्रयोग विफल रहा। क्षेत्रीय पार्टियों ने नई दिल्ली में एक जबान बोली तो श्रीनगर में दूसरी जबान में बात की।

अलगाववादियों के तुष्टिकरण का सबसे खराब प्रयास गुपचुप रूप से संविधान में अनुच्छेद 35ए को सरकाने का 1954 का फैसला था। इसमें भारतीय नागरिकों की दो श्रेणियों के बीच भेदभाव किया गया और इसकी परिणति कश्मीर को देश के शेष भाग से दूर करने में हुई। इस बीच जमात ने उदार घाटी को सूफीवाद से वहाबवाद में परिवर्तित करने के लिये बड़ा अभियान छेड़ दिया।

अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35ए के अंतर्गत विशेष दर्जा प्रदान करने की ऐतिहासिक भूलों की देश को राजनीतिक और वित्तीय, दोनों रूप से कीमत चुकानी पड़ी। आज, जबकि इतिहास को नए सिरे से लिखा जा रहा है, उसने ये फैसला सुनाया है कि कश्मीर के बारे में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की दृष्टि सही थी और पंडित जी के सपनों का समाधान विफल साबित हुआ है।

प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी की कश्‍मीर नीति

पिछले सात दशकों में समस्‍या को सुलझाने के लिए विभिन्‍न प्रयास किये गये, प्रधानमंत्री मोदी ने वैकल्पिक राह पर चलने का निर्णय लिया। सैकड़ों की संख्‍या में अलगाववादी नेताओं और हथियारबंद आतंकवादियों ने राज्‍य और देश को बंधक बना रखा था। देश ने हज़ारों नागरिकों और सुर‍क्षाकर्मियो को खोया। विकास पर खर्च करने की बजाय हम सुरक्षा पर खर्च कर रहे हैं। वर्तमान निर्णय यह स्‍पष्‍ट करता है कि जिस तरह देश के अन्‍य भागों में कानून का शासन है उसी तरह कश्‍मीर में कानून का शासन लागू होगा। सुरक्षा के कदम कड़े किये गये हैं। बड़ी संख्‍या में आतंकवादियों का सफाया किया गया है। उनकी संख्‍या में काफी कमी आई है। अलगाववादियों को दी गई सुरक्षा वापस ली गई, आयकर विभाग तथा एनआईए ने ऐसे गैर-कानूनी संसाधनों का पता लगाया जो इन अलगाववादियों और आतंकवादियों को मिल रहे थे। इन दोनों श्रेणियों के बीच पिछले 10 महीनों में सैकड़ों लोग पीडि़त हुए हैं, लेकिन कश्‍मीर घाटी की बाकी आबादी ने दशकों बाद शांति का युग देखा है। अब घाटी में कश्‍मीरी मुस्लिम के अलावा किसी अन्य के नहीं रहने से लोग आतंकवाद का शिकार हो रहे हैं। बहुत लोग भय के कारण अन्‍य राज्‍यों में चले गये हैं।
कानून और व्‍यवस्‍था कठोरता से लागू की गई और कानून तोड़ने वाले किसी व्‍यक्ति को छोड़ा नहीं गया। लाखों कश्‍मीरी लोगों की जिंदगी सुरक्षित की गई और इन कदमों से मुट्ठीभर अलगाववादियों पर दबाव बनाया गया। पिछले 10 महीनों में किसी तरह का विरोध नहीं हुआ है। यहां तक की श्रीनगर में भी नहीं। अगला तार्किक कदम स्‍पष्‍ट रूप से उन कानून की फिर से समीक्षा करना है जो अलगाववादी मानसिकता को जन्‍म देते हैं। देश के साथ राज्‍य का पूर्ण एकीकरण करना पड़ा।

पीडीपी तथा नेशनल कांफ्रेंस द्वारा यह दलील दी गई कि अनुच्‍छेद 370 तथा अनुच्‍छेद 35ए को खं‍डित करने से कश्‍मीर भारत से टूटकर अलग हो जायेगा क्‍योंकि यह देश और कश्‍मीर के बीच एक मात्र सशर्त संपर्क है। यह दलील स्‍पष्‍ट रूप से दोषपूर्ण है।

अक्‍टूबर 1947 में परिग्रहण दस्‍तावेज़( इंस्‍ट्रूमेंट ऑफ एक्‍सेशन) पर हस्‍ताक्षर किया गया। किसी भी व्‍यक्ति द्वारा एक बार भी अनुच्‍छेद 370 या अनुच्‍छेद 35ए का जिक्र नहीं किया गया। अनुच्‍छेद 370 संविधान में 1950 में आया। संविधान सभा में बहस 10 मिनट से भी कम हुई। सरकारी पक्ष के नेता चर्चा में शामिल नहीं हुए और एन. गोपालस्‍वामी आयंगर ने इस वचन के साथ प्रस्‍ताव रखा कि यह अस्‍थाई व्‍यवस्‍था है। इस विषय पर केवल एक सदस्‍य ने अपनी राय रखी।

अल्‍पसंख्‍यक समुदाय के इस सदस्‍य ने अनुच्‍छेद 370 का विरोध नहीं किया। उन्‍होंने यह मांग की कि इसे उनके क्षेत्र में भी लागू किया जाये। आज केवल एक देश है जहां प्रत्‍येक नागरिक बराबर है। प्रारंभ में पंडित जी ने उच्‍चतम न्‍यायालय और चुनाव आयोग का क्षेत्राधिकार जम्‍मू-कश्‍मीर तक बढ़ाने की अनुमति नहीं दी। उन्‍होंने यह महसूस नहीं किया कि वे एक उपराष्‍ट्र बना रहे हैं। शेख साहब को हटाने और उन्‍हें जेल में डालने के बाद ही इन संस्‍थानों का क्षेत्राधिकार जम्‍मू-कश्‍मीर तक हुआ। स्थिति को बदलने के निर्णय में स्‍पष्‍टता, विज़न तथा संकल्‍प की आवश्‍यकता थी। इसमें राजनीतिक साहस की भी जरूरत थी। प्रधानमंत्री ने संपूर्ण स्‍पष्‍टता और संकल्‍प के साथ इतिहास बनाया है।

कश्‍मीर के नागरिकों पर अनुच्‍छेद 370 और अनुच्‍छेद 35ए का नकारात्‍मक प्रभाव

भारत का कोई नागरिक कश्‍मीर जाकर बस सकता है, वहां के विकास के लिए निवेश कर सकता है और रोजगार का सृजन कर सकता है। आज वहां कोई उद्योग नहीं है, मुश्किल से कोई निजी अस्‍पताल है, निजी क्षेत्र द्वारा कोई विश्‍वसनीय शैक्षिक संस्‍थान स्‍थापित नहीं किया गया है। भारत के सबसे सुंदर राज्‍य में होटल श्रृंखलाओं से भी निवेश नहीं हो पाता है।

इतना ही नहीं, स्‍थानीय लोगों के लिए कोई नया रोजगार नहीं है, राज्‍य के लिए कोई राजस्‍व नहीं है। इससे राज्‍य के सभी क्षेत्रों में निराशा बढ़ी है। ये संवैधानिक प्रावधान पत्‍थर की लकीर नहीं है। कानून की निर्धारित प्रक्रिया के माध्‍यम से इन्‍हें हटाया जाना था अथवा बदला जाना था। यहां तक कि संसद अथवा राज्‍य विधानसभा द्वारा अनुच्‍छेद 35ए स्‍वीकृत नहीं था। यह अनुच्‍छेद 368 को चुनौती देता है, जिसके द्वारा संविधान के संशोधन की प्रक्रिया निर्धारित है। एक कार्यपालक अधिसूचना द्वारा इसे पिछले दरवाजे से लाया गया था। यह भेदभाव को अनुमति देता है और इसे न्‍याय से परे बताता है।

दो क्षेत्रीय दलों की भूमिका

दो क्षेत्रीय पार्टियों के नेता भिन्‍न बातें बोलते हैं। अक्‍सर नई दिल्‍ली में दिए गए उनके वक्‍तव्‍य आश्‍वासन देने वाले होते हैं। किंतु श्रीनगर में वे भिन्‍न रूप में बोलते हैं। उनका रवैया अलगाववादी वातावरण से प्रभावित है। यह एक ऐसा कटु सत्‍य है कि दोनों ने सरजमीं पर समर्थन खो दिया है। कई राष्‍ट्रीय पार्टियों ने खुद को गुमराह होने के लिए छोड़ दिया है। राष्‍ट्रीय एकता के एक मुद्दे को धर्मनिरपेक्षता का एक मुद्दा बना दिया गया है। इन दोनों में साझा कुछ भी नहीं है।

इस पहल के व्‍यापक समर्थन ने कई विपक्षी दलों को भी पहल का समर्थन करने के लिए बाध्‍य कर दिया है। उन्‍होंने वास्‍तविकता का अनुभव किया है और वे लोगों की नाराजगी का सामना नहीं करना चाहते। यह एक पछतावा है कि कांग्रेस पार्टी की विरासत ने पहले तो समस्‍या का सृजन किया और फिर उसे बढ़ाया, अब वह कारण ढूंढने में विफल है। उदाहरणस्‍वरूप जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय में राहुल गांधी ने जब ‘टुकड़े-टुकड़े’ गैंग को समर्थन दिया था, तब कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की भी अलग राय थी। यह सरकार के इस फैसले के लिए लागू होता है। कांग्रेस के लोग व्‍यापक तौर पर इस विधेयक का समर्थन करते हैं। उनकी निजी और सार्वजनिक टिप्‍पणियां इस दिशा मे हैं, किंतु एक दिग्‍भ्रमित के रूप में राष्‍ट्रीय पार्टी भारत की जनता से अपनी विरक्ति बढ़ा रही है। नया भारत एक बदला हुआ भारत है। केवल कांग्रेस ही इसे महसूस नहीं करती है। कांग्रेस नेतृत्‍व पतन की ओर अग्रसर है।

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