गोपालगंज 15 जून । मुगल सल्तनत के घुटने टेकने के बाद भारत में अंग्रेजी हुकूमत का विस्तार करने की बढ़ी सनक में अपना वजूद और आजादी बचाने के लिए ब्रतानी हुक्मरानों को धूल चटाने वाले हुसेपुर के तत्कालीन महाराज फतेह बहादुर साही को आज केज बिहार के गोपालगंज जिला प्रशासन ने स्वतंत्रता सेनानी का सम्मान देने की बजाय ‘डाकू’ माना है।
इसे गोपालगंज जिला प्रशासन की लापरवाही और उदासीनता मानी जाय या इतिहास की अनदेखी या गुलाम भारत पर शासन करने के लिए अंग्रेज गर्वनर जनरल लॉर्ड कार्नवाॅलिस द्वार तैयार प्रशासनिक ढांचे को कायम रखने का दंभ।
बहरहाल, जो भी है लेकिन जिला प्रशासन की वेवसाइट के पर्यटन पृष्ठ के चौथे पैराग्राफ में हुसेपुर का इतिहास दर्ज है, जिसमें लिखा है कि हुसेपुर पूर्व में हथुआ महाराजाओं का कार्यक्षेत्र हुआ करता था। बसंत साही के ईस्ट इंडिया कंपनी का मुखबिर बन जाने और विद्रोह से जुड़ी सूचना देने के आरोप में उनके चचेरे भाई और डाकू फतेह बहादुर साही ने उनकी हत्या हत्या कर दी थी।
इस पर हिंदी के समालोचक और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू), दिल्ली में हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे डॉ. मैनेजर पांडेय ने कड़ी आपत्ति दर्ज कराते हुए कहा कि 09 अगस्त 1925 को देश के क्रांतिकारियों ने काकोरी में एक ट्रेन में डकैती की थी। ‘काकोरी कांड’ नायक पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह, अशफाक उल्लाह खां, और चंद्रशेखर आजाद को भी सरकार डकैत मानेगी क्या। 08 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेंबली में बम फेंका था तब तो उन्हें भी आतंकवादी कहना गलत नहीं होगा। आजादी के पहले महानायक महाराज फतेह बहादूर साही को डकैत लिखकर इतिहास को पलटने की कोशिश की गयी है।
वहीं, गोपालगंज के जिलाधिकारी अरशद अजीज ने कहा, “जिला प्रशासन की वेबसाइट पर इतिहास से छेड़छाड़ किए जाने की मुझे जानकारी नहीं है। वेबसाइट पर अपलोड कंटेंट को पढ़ने का मुझे मौका भी नहीं मिला है। यदि वेबसाइट पर ऐतिहासिक तथ्यों के साथ गड़बड़ी हुई है तो इसकी पूरी जानकारी लेकर उसे सही करा लिया जाएगा।
श्री पांडेय ने इतिहास के हवाले से बताया कि बक्सर युद्ध में हारने के बाद वर्ष 1765 में जब मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय ने बिहार, बंगाल और उड़ीसा की दीवानी अंग्रेजों को सौंप दी तब सारण के कलेक्टर ने हुसेपुर (वर्तमान में गोपालगंज जिले का एक गांव) के महाराज फतेह बहादुर साही से कर चुकाने और कंपनी की अधीनता स्वीकार करने का दबाव डाला लेकिन उन्होंने इन दोनों शर्तों को मानने से इंकार कर दिया। वर्ष 1768 में महाराज साही ने विद्रोह कर दिया, जिसके बाद अंग्रेजों ने उनका किला और राज्य तबाह कर दिया। लेकिन, फतेह बहादुर साही ने जीवन भर न तो अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार की और न ही कर वसूलने दिया। उस समय एक अंग्रेज ने लिखा, “जितनी परेशानी हमें पेशवा से नहीं उतना परेशान हमें फतेह बहादुर साही ने कर रखा है।
इतना ही नहीं वर्ष 1768 के अंत में अंग्रेज गवर्नर वाॅरेन हेस्टिंग्स ने बनारस के राजा चेत सिंह पर पांच लाख का अतिरिक्त कर लगाया, जिसे उन्होंने देने से इंकार कर दिया। इसके बाद उन पर ब्रतानी हुकूमत का कहर बरपा हुआ। इस मुश्किल समय में चेत सिंह ने महाराज फतेह बहादूर साही से मदद मांगी। वह न केवल मदद के लिए आगे आए बल्कि गुरिल्ला दस्ता बनाकर अंग्रेजों को धूल भी चटा दी। इस दौरान उनके भाई बसंत साही ने 1788 में ईस्ट इंडिया कंपनी से महाराज फतेह साही के विद्रोह से जुड़ी सूचनाएं देने लगे। इसकी जानकारी मिलने पर फतेह बहादूर ने बसंत साही की हत्या कर दी और सपरिवार हुसेपुर छोड़कर बागजोगिनी के उतरी छोर पर तमकुहीं गांव के पास (वर्तमान उत्तर प्रदेश) जंगल में रहने लगे।
इधर वारेन हेस्टिंग्स ने फतेह बहादुर के विद्रोह को समाप्त करने के लिए और अधिक सेना बुलायी, जिसमें उनका बड़ा पुत्र मारा गया। अंतत: फतेह बहादूर के गुरिल्ला युद्ध से अंग्रेज सेना को चुनार की ओर पलायन करना पड़ा।
ब्रिटिश लेखक विल्टॉन ने अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ बिहार, इंडिया फैक्ट्रीज’ में भी इस गुरिल्ला युद्ध और फतेह साही की बहादुरी का उल्लेख करते हुए लिखा है, “वाॅरेन हेस्टिंग्स इतना भयभीत हो गया था कि कभी वह घोड़े पर हौदा कसवाता था तो कभी हाथियों पर जीन। उसने श्री साही पर 20 हजार रुपये का इनाम भी घोषित किया था।”
अंगरेजों ने अवध के नवाब पर फतेह बहादुर साही को अपने क्षेत्र से बाहर निकालने का दबाव बनाया।हालांकि वह वर्ष 1800 तक तमकुही में ही रहे। इसके बाद अचानक कहीं चले गये। किसी ने कहा कि वह सन्यासी हो गये तो किसी ने कहा कि वह चेत सिंह के साथ मराठा राज्य की ओर पलायन कर गये। लेकिन, उनके गुरिल्ला युद्ध से भयभित अंग्रेज उनके गायब होने के बाद भी वर्षों तक आतंकित रहे।
महाराजा फतेह बहादूर साही तमकुही में गुरिल्ला दस्ता बनाकर जंग लड़ रहे थे तभी अंग्रेजों के संरक्षण में हथुआ में बसंत साही के पुत्र महेशदत्त साही के लिए आवास बनाया गया। ब्रतानी हुकूमत फतेह बहादूर से इतनी आतंकित हो गई थी उनके गायब होने के कई वर्षों बाद तक भी अंग्रेजों ने हथुआ को राज का दर्जा नहीं दिया। इस्ट इंडिया कंपनी चिंतित थी कि हुसेपुर का राज्य किसे दिया जाये। काफी मंत्रणा के बाद महेश दत्त साही के पुत्र छत्रधारी साही को राजा बना दिया गया। सुरक्षा के दृष्टिकोण से नाबालिग राजा के पालन-पोषण की जिम्मेदारी बसंत साही के विश्वासपात्र मुसाहिब छज्जू सिंह को सौंपी गई। 27 फरवरी 1837 को महाराज छत्रधारी साही को राजगद्दी पर बैठाया गया। इसी के साथ हुसेपुर का हथुआ में विलय हो गया। हथुआ के अंतिम महाराजा महादेव आश्रम साही थे। वर्ष 1956 में स्वतंत्र भारत में जमींदारी उन्मूलन कानून लागू होने के बाद इन रियासतों का अस्तित्व समाप्त हो गया।
श्री मैनेजर पांडेय ने कहा कि ब्रिटिश राज के विरुद्ध विद्रोह की जो आग फतेह बहादुर साही ने सुलगाई थी, उसका दूसरा विस्फोट वर्ष 1857 में हुआ था, जिसे इतिहास में ‘सिपाही विद्रोह और भारत के प्रथम स्तंत्रता संग्राम’ होने का गौरव प्राप्त है।
उन्होंने कहा कि महाराज फतेह बहादुर साही जैसे महानायक के लिए जिला प्रशासन द्वारा ‘डकैत’ लिखना संज्ञेय अपराध है। ऐसे में सरकार को तत्काल हस्तक्षेप कर इसकी जांच कराने और दोषियों पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाने का आदेश देना चाहिए।
वहीं, गोपालगंज निवासी दिल्ली विश्वविद्यालय में व्याख्याता डॉ. मुन्ना पांडेय ने बिहार के स्वर्णिम इतिहास के साथ छेड़छाड़ की राज्यपाल से जांच कराने की मांग करते हुए कहा कि गोपालगंज जिला प्रशासन की वेबसाइट पर महाराजा फतेह बहादूर साही को डाकू बताना महानायक का मान मर्दन है। यह राष्ट्रद्रोह से कम नहीं है।