अयोध्या 6 दिसम्बर। बाबरी मस्जिद से शुरू होती हर बात बाबर द्वारा मंदिर तोड़ के मस्जिद बनाने की घटना पर ख़त्म होती है. ज़्यादातर लोग इसे बाबर का कारनामा मानते हैं। बहुत कम लोगों को पता है कि ये मस्जिद बाबर ने बनाई ही नहीं थी.
बाबरी मस्जिद असल में बाबर की सेना के एक जनरल मीर बाक़ी ताशकंदी ने बनवाई थी. मीर बाक़ी ताशकंद का रहने वाला था. बाबर ने उसे अवध प्रांत का गवर्नर बना के भेजा था.
बताया जाता है कि पानीपत की पहली लड़ाई में विजय के बाद बाबर की सेना ने जब अवध का रुख किया तब बाबर आगरा में ही रुक गया था. उसने मीर बाक़ी को कमान सौंप दी थी.
जिस मस्जिद पर सदियों से विवाद जारी है वो भी असल में मीर बाक़ी ने ही बनवाई थी. और बाबर को खुश करने के लिए उसे ‘बाबरी मस्जिद’ का नाम दे दिया था.
कुछ लोग ये भी कहते हैं कि इस मस्जिद को बाबर के ही हुक्म पर बनवाया गया था. दोनों ही स्थितियों में ये बात सामने आती है कि बाबर का इस मस्जिद की तामीर में फिजिकली कोई रोल नहीं था.
इस मामले में बाबर की जीवनी ‘बाबरनामा’ भी एक अहम दस्तावेज है जिसमें ऐसी किसी घटना का उल्लेख है ही नहीं. एक और तर्क ये भी आता है कि तुलसीदास ने भी कभी ऐसी किसी घटना का ज़िक्र नहीं किया है, जो शायद इस देश में पैदा हुए सबसे बड़े रामभक्त थे. जबकि उन्होंने अपना तमाम जीवन राम को समर्पित कर रखा था. उन्होंने जो भी लिखा सिर्फ राम लिखा. उनके लेखन से भी ‘बाबरी’ घटना नदारद होने के गहरे निहितार्थ हैं.
यह तथ्य आज बतलाएं जाते है
भारत के प्रथम मुगल सम्राट बाबर के समय 1527 में इस मस्जिद का निर्माण किया गया था.
पुजारियों से हिन्दू ढांचे या निर्माण को छीनने के बाद मीर बाकी ने इसका नाम बाबरी मस्जिद रखा.
अयोध्या मंदिर-मस्जिद विवाद सबसे पहले वर्ष 1949 में अदालत की चौखट पर पहुंचा था.
महंत रामचंद्र दास परमहंस जो उस समय के महंत थे उन्होंने भगवान राम की पूजा करने की इजाजत देने के लिए न्यायालय पहुंचे थे. मस्जिद को ‘ढांचा’ नाम दिया गया.
बाबरी मस्जिद के केंद्रीय स्थल पर करीब 50 हिंदूओं ने रामलला की मूर्ति रखी थी, जिसके बाद यहां उनकी पूजा अर्चना शुरू हो गई और यहां मुसलमानों ने नमाज पढ़ना बंद कर दिया.
हाशिम अंसारी ने भी अदालत में याचिका दाखिल करके बाबरी मस्जिद में रखी मूर्तियां हटाने के आदेश देने का आग्रह किया था.
हाशिम अंसारी ही इकलौते ऐसे शख्स थे जो 1949 में इस मस्जिद में रामलाल की मूर्तियां रखे जाने के गवाह थे. उन्होंने इस पूरे घटनाक्रम को खुद देखा था.
वर्ष 1990 में लाल कृष्ण आडवाणी ने गुजरात के सोमनाथ से अयोध्या तक रथ यात्रा निकाली.
हजारों की संख्या में कार सेवकों ने वर्ष 1992 में अयोध्या पहुंचकर बाबरी मस्जिद ढहा दिया।
वर्ष 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस संबंध में फैसला सुनाया था. न्यायालय ने विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बांटने का फैसला सुनाया था, लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले पर रोक लगा दी.
कुछ ऐतिहासिक तथ्य
80 के दशक में सरयू नदी के तट पर बसा अयोध्या साल में सिर्फ एक बार सुर्खियों में आता था, जब मानसून के दिनों में नेपाल से भारत आने वाली नदियों में बाढ़ आती थी. या फिर पांच सालों में एक बार, जब चुनाव के दिनों में कम्युनिस्ट पार्टी फैजाबाद और अयोध्या को लाल रंग से रंग देती थी. कई सालों तक फैजाबाद मध्य उत्तर प्रदेश में कम्युनिस्टों का गढ़ बना रहा.
लेकिन यह सब जल्द ही बदलने वाला था. इसकी जड़ें हजारों मील दूर दक्षिण भारत के एक छोटे से गांव में थीं. जनवरी 1981 में तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम गांव के 200 दलितों ने जाति भेद के खिलाफ विद्रोह करते हुए इस्लाम कुबूल कर लिया. इसके बाद शुरू हुआ उन घटनाओं का सिलसिला जिनके चलते बाबरी मस्जिद ढहा दी गई.
मीनाक्षीपुरम में दलितों के धर्म परिवर्तन से लेकर मंडल-कमंडल आंदोलन तक की घटनाओं ने भारतीय राजनीति को बुरी तरह प्रभावित किया. इस दशक ने आने वाले कई दशकों के लिए सामाजिक-राजनीतिक तानेबाने को बदलकर रख दिया.
आज बाबरी विध्वंस की 25वीं बरसी है। स्वतंत्र भारत की राजनीति के सबसे उतार-चढ़ाव भरे दौर की घटनाओं में यह घटना महत्वपूर्ण रही है। आज स्थिति यह है कि राम मंदिर आंदोलन से जुड़े कुछ लोग ताकतवर नेता बन गए, वहीं कई कारसेवक अब भी मंदिर के लिए मरने को तैयार हैं.
अयोध्या में राम कहानी और बाबरी मस्जिद विध्वंस
अयोध्या में आज 25 साल पूरे हो गए हैं। 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में कार सेवा के नाम पर जुटे हजारों लोगों ने अचानक विवादित ढांचे पर चढ़ना शुरू कर दिया था और देखते ही देखते पूरा ढांचा ज़मीन पर आ गिरा। उस दिन ये ढांचा गिरा और भारत में एक नई सियासी लकीर खिंच गई।
पच्चीस साल पहले आज ही के दिन ये विवादित ढांचा ढहा दिया गया। इन पच्चीस सालों में सरयू में न जाने कितना पानी बह गया और देश की एक पीढ़ी जवान हो गई लेकिन इस ढांचे कि गिराए जाने से जो धूल का गुबार उठा वो आज तक नीचे नहीं बैठ पाया।
6 दिसंबर 1992 की शाम से लेकर आज पच्चीस साल बाद तक इस जगह पर कुछ नहीं बदला है। अगर कुछ बदला तो टेंट के ये तिरपाल जिसके अंदर रामलला विराजमान हैं। जैसे धूल का गुबार नहीं थमा वैसे ही उस दिन की यादें फीकीं नहीं पड़ीं हैं।
6 दिसंबर को अयोध्या में जो कुछ भी हुआ उससे पहले यहां विवादों का लंबा इतिहास रहा लेकिन जून 1989 में भाजपा ने विश्व हिंदू परिषद की मुहिम को अपना समर्थन दिया तो 9 नवंबर 1989 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने बाबरी मस्जिद के नजदीक शिलान्यास की इजाजत दी। इसके बाद 25 सितंबर 1990 को पूर्व भाजपा अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने गुजरात के सोमनाथ से उत्तर प्रदेश के अयोध्या तक रथ यात्रा निकाली, इसी दौरान नवंबर में आडवाणी को बिहार के समस्तीपुर में गिरफ्तार कर लिया गया।
अक्टूबर 1991 में उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह सरकार ने बाबरी मस्जिद के आस-पास की 2.77 एकड़ ज़मीन को अपने अधिकार में ले लिया। उसके बाद 6 दिसंबर 1992 को हज़ारों कार सेवकों ने इस ढांचे को गिरा दिया। सुबह साढे दस बजे से शुरू हुई इस विध्वंसक कार्रवाई ने शाम पांच बजे तक यहां पर एक सपाट मैदान बना दिया और आनन फानन में तिरपाल का इंतज़ाम करके रामलला को विराजमान कर दिया गया। तब से आज तक ये तिरपाल बदलता रहता है, ड्यूटी में तैनात सिपाही बदलते रहते हैं और बदलता रहता है दांव पेंच का सिलसिला। अयोध्या आज देश के सियासी एजेंडे पर है। त्रेतायुग के राम के लिए कलियुग में इंसाफ की लड़ाई लड़ी जा रही है और इस लड़ाई का मैदान पूरा हिन्दुस्तान है।attacknews.in