नईदिल्ली 17 अगस्त। अटल बिहारी वाजपेयी के निधन के साथ ही भारतीय संसदीय लोकतंत्र का वह युग समाप्त हो गया है जब राजनीतिक विरोधियों के बीच स्वस्थ संवाद, एक-दूसरे का आदर और मानवीय स्तर पर संबंध बनाये रखना संभव था.
इस युग की समाप्ति का एक प्रमाण यह भी है कि आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तुलना में अटल बिहारी वाजपेयी बेहद ‘उदार’, ‘एक सही आदमी जो गलत पार्टी में था’, ‘नेहरूवादी’ और यहां तक कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ भी लगने लगे हैं. यदि इन विशेषणों को छोड़ भी दें तो भी इसमें कोई संदेह नहीं कि नेहरू युग में बड़े हुए और राजनीति में प्रवेश कर संसद तक पहुंचे वाजपेयी ने उन अनेक संसदीय मूल्यों को आत्मसात कर लिया था जिन्हें स्थापित करने के लिए प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और उनके समकालीन अनेक नेताओं ने भरसक प्रयास किये थे. इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि नेहरू के विरोध से अपनी राजनीति की शुरुआत करने के बावजूद वे उनके प्रशंसक बने रहे, खासकर इसलिए भी क्योंकि वाजपेयी के कड़े भाषण का प्रहार सहने के बावजूद नेहरू ने उनकी पीठ थपथपा कर उनकी प्रशंसा की थी, और इस तरह उन्हें विरोधी के साथ भी संवाद बनाने के लोकतांत्रिक मूल्य का सीधे-सीधे साक्षात्कार कराया था.
लेकिन यदि कश्मीरी ब्राह्मण जवाहरलाल नेहरू कट्टर धर्मनिरपेक्ष थे तो कान्यकुब्ज ब्राह्मण अटल बिहारी वाजपेयी कट्टर हिंदुत्ववादी, हिन्दू राष्ट्र के निर्माण और बहुसंख्यक हिन्दुओं के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक वर्चस्व के लक्ष्य के प्रति समर्पित राजनीतिक नेता.
दसवीं कक्षा में ही उन्होंने एक लंबी कविता लिखी थी जिसकी टेक थी: “हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय.’ इस कविता को उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक यानी सर्वोच्च नेता माधवराव सदाशिव गोलवलकर के सामने गाकर सुनाया था और उनका ध्यान आकृष्ट किया था. यह पंक्ति अंत तक उनके जीवन को परिभाषित करती रही.
हास-परिहास, व्यंग्य-विनोद और वाक्चातुर्य से लैस वाजपेयी का व्यक्तित्व लोगों को अनायास ही अपनी ओर आकृष्ट कर लेता था, और इसी कारण अन्य दलों के नेताओं के साथ उनके हमेशा स्वस्थ संवाद के संबंध बने रहे. लेकिन वक्त आने पर उन्होंने अपनी संघी निष्ठा को ही सबसे ऊपर रखा. अयोध्या में 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद के ध्वंस के कुछ ही समय पहले लखनऊ में उनका कारसेवकों की सभा में भाषण पूरी तरह से भड़काऊ था क्योंकि उसमें विवादित स्थल को समतल किये जाने का आह्वान किया गया था. 2002 में गुजरात में हुई व्यापक मुस्लिम-विरोधी हिंसा के समय भी उन्होंने राज्य के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से ‘राजधर्म’ निभाने को कहा लेकिन साथ में यह भी जोड़ दिया, “और मुझे उम्मीद है कि वे निभा भी रहे हैं.”
गोवा में उनका भाषण सीधे-सीधे मुस्लिम समुदाय के खिलाफ था क्योंकि उनका कहना था कि मुसलमान कहीं भी मिलजुल कर शान्ति के साथ नहीं रह सकते. ओडिशा में जब ईसाई पादरी ग्राहम स्टेंस और उनके दो बच्चों को बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने सोते हुए जीप में जला कर मार डाला, तब प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए वाजपेयी ने धर्मांतरण पर एक “राष्ट्रीय बहस” चलाए जाने की जरूरत बताई. उनकी सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने इतिहास की पाठ्यपुस्तकों का हिंदुत्ववादी दृष्टिकोण से पुनर्लेखन का काम भी शुरू कराया. सरकारी कार्यक्रमों में सरस्वती वंदना को अनिवार्य किये जाने के प्रयास किए गए और अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में वाजपेयी ने रामजन्मभूमि आंदोलन को “राष्ट्रीय भावनाओं का प्रकटीकरण” बताकर उसकी प्रशंसा की।
लेकिन वाजपेयी एक अर्थ में अपने संघी सहयोगियों से अलग थे. उन्होंने ढोंग नहीं किया. उनका व्यक्तिगत जीवन सबके सामने खुली किताब था. एक बार यह पूछे जाने पर कि क्या आप ब्रह्मचारी हैं, वाजपेयी ने मुस्कुरा कर कहा कि मैं कुआंरा जरूर हूं, ब्रह्मचारी नहीं. इसी तरह सामिष भोजन, विशेषकर कश्मीरी और मद्यपान के शौकीन होने की बात भी उन्होंने कभी नहीं छुपाई. उनका जमाना आज जैसा नहीं था जब चरित्रहनन एक स्वीकृत राजनीतिक हथियार हो गया है. उनके राजनीतिक विश्वास कुछ भी रहे हों, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि उनकी गिनती देश के बड़े नेताओं में ही की जाएगी।attacknews.in