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भाजपा से रुख़सत हुए बिहारी बाबू शत्रुघ्न सिन्हा का फिल्मी दुनिया से लेकर राजनीति में ऐसा रहा है सफर attacknews.in

नयी दिल्ली, 17 मार्च । अपनी दमदार आवाज और अनूठी अदा से अपने विरोधियों एवं प्रतिद्वंद्वियों को अक्सर ‘‘खामोश’’ कराते रहे शत्रुघ्न सिन्हा पिछले करीब पांच साल से भाजपा में अपनी अनदेखी के खिलाफ पार्टी के भीतर और बाहर अपने बागी तेवर और तीखे तंजों से आक्रामक रहे हैं। पार्टी के खिलाफ उनकी इस मुखरता से 2019 लोकसभा चुनाव में ‘‘बिहारी बाबू’’ को टिकट नहीं मिलना लगभग तय है और पार्टी से उनके अलविदा कहने की भी प्रबल संभावना प्रतीत हो रही है।

स्वयं सिन्हा ने भाजपा छोड़ने का हाल में संकेत देते हुए ट्वीट किया, ‘‘ जनता से किए गए वादे अभी पूरे होने बाकी हैं…मोहब्बत करने वाले कम न होंगे, तेरी महफिल में लेकिन हम न होंगे।’’ ट्वीट में उनका संकेत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तरफ है।

पटना साहिब से भाजपा सांसद सिन्हा ने साल 1969 में फिल्म ‘साजन’ से अपने बॉलीवुड करियर की शुरुआत की थी। सिन्हा ऐसे मंझे हुए अभिनेता हैं कि उन्होंने खलनायक और नायक, दोनों के किरदारों में कई ब्लॉकबास्टर फिल्में दीं और उनके ‘अबे खामोश….’ जैसे अनेक संवादों ने बॉलीवुड में धूम मचाई।

सिन्हा की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार वह 1974 में पहली बार लोकनायक जयप्रकाश नारायण के सम्पर्क में आये। जयप्रकाश के व्यक्तित्व ने उन्हें राजनीति के माध्यम से सार्वजनिक जीवन उतरकर जन कल्याण के कार्यों में संलग्न होने के लिए प्रेरित किया।

फिल्मी जीवन की तमाम व्यस्तताओं के बावजूद वह 1980 दशक के मध्य से ही स्टार प्रचारक के रूप में भाजपा की चुनावी रैलियों में उतरने लगे थे। उन्होंने 1992 में नयी दिल्ली लोकसभा की प्रतिष्ठित सीट से पहली बार अपनी चुनावी किस्मत आजमायी थी। यह चुनाव कई मामलों में ऐतिहासिक और पूरे देश की रुचि का केन्द्र बन गया था। इससे पहले भाजपा के कद्दावर नेता लालकृष्ण आडवाणी ने इसी सीट पर अपने समय के सुपरस्टार एवं कांग्रेस प्रत्याशी राजेश खन्ना को परास्त किया था। किंतु चुनाव जीतने के बाद आडवाणी ने नयी दिल्ली सीट छोड़ दी थी क्योंकि वह गांधीनगर लोकसभा सीट से भी निर्वाचित हुए थे।

इसके बाद नयी दिल्ली लोकसभा के लिए हुए उप चुनाव में राजेश खन्ना कांग्रेस के प्रत्याशी और शत्रुघ्न सिन्हा को भाजपा का प्रत्याशी बनाया गया। किंतु सिन्हा की किस्मत ने उनका साथ नहीं दिया और वह खन्ना के हाथों हार गये। बाद में वह 1996 एवं 2002 में राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए। इसके बाद वह 2009 और 2014 का लोकसभा चुनाव पटना साहिब संसदीय क्षेत्र से जीते।

सिन्हा अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार में स्वास्थ्य एवं जहाजरानी मंत्री रहे और वह मोदी के नेतृत्व वाली सरकार में भी मंत्री बनने की उम्मीद लगाए बैठे थे। लालकृष्ण आडवाणी के करीबी माने जाने वाले सिन्हा ने प्रधानमंत्री मोदी की आलोचना प्रत्यक्ष और परोक्ष ढंग से करने में कोई परहेज नहीं किया।

‘बिहारी बाबू’ कहे जाने वाले सिन्हा कभी बिहार के मुख्यमंत्री बनने का सपना भी देखते थे लेकिन बिहार में उनकी जगह सुशील कुमार मोदी जैसे नेताओं को ज्यादा महत्व दिया गया। भाजपा नेतृत्व ने 2015 में बिहार में चुनाव के दौरान शत्रुघ्न सिन्हा को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया। यहां तक कि उन्हें भाजपा की ओर से स्टार प्रचारक तक नहीं बनाया गया।

सिन्हा, पूर्व केन्द्रीय मंत्रियों यशवंत सिन्हा और अरूण शौरी के साथ मोदी सरकार के मुखर विरोधी रहे। किंतु भाजपा उनके खिलाफ कोई कार्रवाई करने में ‘‘खामोश’’ ही रही है। जाहिर है कि पार्टी उन्हें निष्कासित करने जैसा कोई कदम उठाकर उन्हें ‘‘राजनीतिक शहीद’’ नहीं बनाना चाहती।

ऐसी अटकलें हैं कि राजद और कांग्रेस नीत विपक्षी महागठबंधन सिन्हा को पटना साहिब लोकसभा सीट से मैदान में उतार सकता है।

वर्ष 1993 के मुंबई बम धमाकों के दोषी याकूब मेमन की फांसी की सजा के मुद्दे पर भी शॉटगन ने पार्टी लाइन से इतर जाकर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को भेजी गई एक दया याचिका पर हस्ताक्षर किए थे। उन्होंने बालाकोट आतंकी शिविर पर भारत के हवाई हमले को लेकर सरकार से ब्योरा जारी करने की मांग की थी और बड़ी संख्या में आतंकियों के मारे जाने के दावे को ‘‘तमाशा’’ करार दिया था।

शॉटगन हाल ही में तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष ममता बनर्जी की विपक्षी दलों की महा-रैली में शामिल हुए थे। वहां उन्होंने राम मंदिर के मुद्दे पर पत्रकारों के सवाल के जवाब में कहा था , ‘‘खामोश।’’

सिन्हा ने 2016 में अपनी आत्मकथा ‘एनीथिंग बट खामोश’ में अपनी निजी, फिल्मी और राजनीतिक जिन्दगी से जुड़े कई राज खोले थे। उन्होंने इस किताब में कहा कि अमिताभ बच्चन उनकी शोहरत से परेशान थे। उनकी वजह से उन्हें कई फिल्में छोड़नी पड़ीं। सिन्हा ने कहा कि अभिनेत्री जीनत अमान और रेखा की वजह से उनके तथा बच्चन के बीच दरार बढ़ी।

किताब में उन्होंने 1992 में नयी दिल्ली लोकसभा सीट पर राजेश खन्ना से उपचुनाव हार जाने को बेहद निराशाजनक क्षणों में से एक बताया था।

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